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रविवार, 6 सितंबर 2015

ग़ज़ल

रोज़ अपने ही साए से तो लड़ रहा हूँ मैं ।
समंदर हूँ उतर कर फ़िर चढ़ रहा हूँ मैं ।

आज मेरी राहों में अँधेरे हैं तो क्या हुआ,
रौशनी की तरफ़ ही तो बढ़ रहा हूँ मैं ।

आँधियाँ थम जाएँगी इक रोज़ थककर,
फ़िलहाल उनसे कहाँ उखड़ रहा हूँ मैं ।

रेत पे लिखा नाम हूँ जो मोजें मिटा देंगी,
संग पे बना नक्श हूँ नहीं बिगड़ रहा हूँ मैं ।

लिख रहा है इबारत मेरे आमालों की तू,
तन्हाआसमानों को रोज़ पढ़ रहा हूँ मैं ।


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