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रविवार, 6 सितंबर 2015

ग़ज़ल

रोज़ अपने ही साए से तो लड़ रहा हूँ मैं ।
समंदर हूँ उतर कर फ़िर चढ़ रहा हूँ मैं ।

आज मेरी राहों में अँधेरे हैं तो क्या हुआ,
रौशनी की तरफ़ ही तो बढ़ रहा हूँ मैं ।

आँधियाँ थम जाएँगी इक रोज़ थककर,
फ़िलहाल उनसे कहाँ उखड़ रहा हूँ मैं ।

रेत पे लिखा नाम हूँ जो मोजें मिटा देंगी,
संग पे बना नक्श हूँ नहीं बिगड़ रहा हूँ मैं ।

लिख रहा है इबारत मेरे आमालों की तू,
तन्हाआसमानों को रोज़ पढ़ रहा हूँ मैं ।


शनिवार, 5 सितंबर 2015

ग़ज़ल

ऐ ख़ुदा तेरी दुनिया में इतनी मुसीबत क्यों है ।
कहीं दौलत है तो कहीं इतनी ग़ुरबत क्यों है ।

हो गई रंजिशें तेरी इबादतगाहों की तामीर पे,
तेरे ही बन्दों में तेरी इतनी मुख़ालफ़त क्यों है ।

हो जाए क़त्ल रोज़ ही सच का सरेआम यहाँ,
झूट और फ़रेब की फ़िर इतनी क़ीमत क्यों है ।

बँट गयी ज़मीन, बँट गए इंसान सारे यहाँ 
हमसायों में फैली हुई इतनी नफ़रत क्यों है । 

तू ही कहता है मिलूँगा हर ज़र्रे में ढूँढ ले मुझको,
फ़िर तुझे पाने के लिए इतनी इबादत क्यों है ।

हरेक बात पे जता के फ़र्क़, होगा क्या हासिल हमें, 
अमन की बात पे ऐ लोगों इतनी मुनाक़ज़त क्यों है ।  

'तन्हा' आया हूँ तन्हा ही लौट जाना है मुझे,
आज दिल में जाग रही इतनी हसरत क्यों है ।