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रविवार, 18 जून 2023

आक्षेपों के उत्तर में शायर राहत इंदौरी

 

आक्षेपों के उत्तर में शायर राहत इंदौरी

ये न पता था राहत साहब हम सब को छोड़कर इतनी जल्दी हमारे बीच से चले जाएंगे, हम सब बेहद गमगीन हैं उनके इस तरह चले जाने से। एक सदमा लगा है पूरे उर्दू अदब को, साथ ही भारतीय भाषा की कविता को। ये लेख लिखा तो था उनपर लग रहे आक्षेपों के निवारण के लिए, लेकिन अब श्रद्धांजलि स्वरूप उनको समर्पित मेरे कुछ शब्द सुमन हैं जो आपके सामने हैं। तथाकथित आलोचक, कवि सुशील कुमार के एक  लेख- जनपक्षधरता बनाम सांप्रदायिक जोश के उत्तर में लेख है। सुशील कुमार यह लेख @ दुनिया इन दिनों, वर्ष 4 अंक 9-10 में नवंबर 2019 में खरी-खरी कॉलम में प्रकाशित हुआ था। इस लेख ने कई तरह से राहत इंदौरी पर आक्षेपों को लगते हुए शायर की धारणाओं के विगलन, विचलन को प्रमुखता दी और गलत तरीके से शायर की, शायरी का मनचाहा अर्थ ग्रहण करते हुए जातीय समीकरण का शायर सिद्ध करने का असफल प्रयास किया है। उनकी शायरी को धूमिल किया गया, जबकि वे तरक्कीपसंद शायरों में शुमार होते हैं। उनकी ग़ज़लें कई सामाजिक यथार्थ की विशेषताओं से युक्त हैं। विद्रोह का स्वर रखती हैं, व्यवस्था परिवर्तन की माँग करती हैं, वतनपरसती की बात करती हैं जज़्बा रखती हैं, मज़लूमों के हक़ में खड़े रहने की ताक़त देती हैं, वे परंपरा को तोड़ते हुए नए मानवीय मूल्यों को गढ़ती हैं, उनकी गज़लें हाशिये के समाज के मुद्दों को उठाती हैं और बहस-जिरह करती हैं। लेकिन अफसोस ये है कि उनकी ग़ज़ल की ख़ूबियों को एजेंडे के तहत नज़रअंदाज़ कर उनपर और उनकी शायरी पर लगातार हमला बोला जाता रहा है। वे इस हमले पर कुछ प्रतिक्रिया दिये बगैर अलविदा कह गए, लेकिन हम लोगों पर एक अनकहा दायित्व भी छोड़ गए हैं, जिसको पूरा करना अब आज इस वक़्त बेहद ज़रूरी सा लगता है।  

          जब समय समाज और सत्ता बदल जाती है तो अच्छे-अच्छों के स्वर भी बदल जाते हैं, क्योंकि इसके पीछे की सारी सच्चाई यह रहती है कि जो कल तक जो चुप्पी साधे थे, बात सोच रहे थे, लेकिन प्रहार करने के समय की प्रतीक्षा में थे, वह अब आज स्वार्थ साधने में लग गए हैं, ताकि उनका कोई न कोई काम बन सके, किसी भी तरह से लाभ प्राप्त हो जाए और वह भी समय के बदलाव के साथ सत्ता के एकांगी समर्थन में जुट गए हैं। अपनी वफादारी सिद्ध करने के लिए, अपना स्थान सुनिश्चित करने के लिए तरह-तरह की एजेंडे या मानसिक दोष या नफरत से भरे होने के कारण कवायद करने लगे हैं। ये कवायद खतरनाक ही नहीं, बल्कि पीढ़ियों को नफ़रत में धकेलने वाली है और असहिष्णुता के समाज की रचना करने वाली है। इस कवायद मैं जहां एक और किसी ख़ास दृष्टि से किसी ख़ास व्यक्ति अथवा समुदाय को निशाना बनाया जाता है, उसमें बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया जाता है और फिर एक निश्चित उद्देश्य के साथ निशाना साधा जाता है, भले ही निशाना साधने से पहले उसने कभी पहले न तो तीर-कमान पकड़ी हो और न ही बंदूक चलाने का अनुभव हो। बस निशाना साधने में लग जाता है और इस निशाने साधने में वह जिसे टारगेट करता है उसके आसपास ज्यादा तीर और गोलियों की बौछार होती है, टारगेट पर कम ही लग पाती है। इसे अब आज के समय में, आज की भाषा में, डिजिटल युग में एक नया नाम दिया जाने लगा है, जिसे ट्रोल करना कहा जाता है। ये एक तरह की लिंचिंग भी काही जा सकती है, जिसमें उसे भौतिक रूप में मारा नहीं जाता, बल्कि उसकी विचारधारा की हत्या कि जाती है, एक अप्रत्यक्ष हत्या भी कह दिया जाए तो गलत नहीं। आज कोई भी शख़्स फेसबुक, ट्विटर इत्यादि डिजिटल माध्यमों पर बड़ी आसानी से ट्रोल कर दिए जा रहे हैं और ख़ासकर ये अप्रत्यक्ष हत्या बहुत बढ़ावे के साथ सामुदायिक प्रवृत्ति से ग्रसित हो रही है, जैसे कि टिड्डी दल। जब टिड्डी दल को पर्याप्त मात्रा में खुराक मिल जाती है तो वह समूहों में फसल चट कर जाती हैं, ठीक वैसे ही आज सामुदायिक ट्रोल प्रवृत्ति का समय आ चुका है। आज ट्रोल वो हो रहे है हैं जो सत्ता के विरुद्ध खड़े हैं, प्रश्न कर रहे हैं, किसी संस्कृतिक युद्ध के भागीदार नहीं, किसी सामुदायिक प्रवृत्ति से दूर हैं, जो वास्तव में अंधी भीड़ का हिस्सा नहीं, जो खुद की आइडेंटीटी रखते हैं। वे बहुत अधिक मात्रा में ट्रो लकिए जाते हैं जो प्रसिद्ध हैं, लेकिन जो छद्म राष्ट्रवाद के निश्चित सांचे से अलग अपनी भूमि पर खड़े हुए दिखाई दे रहे हैं, जो दक्षिणपंथी नहीं हैं, जो विचारशील हैं उन्हें घेरा जा रहा है और जन-चौक पर घसीटकर लाया जा रहा है तथा तरह-तरह के आरोप-प्रत्यारोप सिद्ध किए जा रहे हैं। ट्रोल में बहुत से नेता, अभिनेता, समाज-सेवक, इतिहासकार, लेखक और शायर शुमार हैं, जिन्हें लगातार ट्रोल का सामना करना पड़ रहा है। केवल व्यक्तिगत रूप से ही ट्रोल नहीं किए जा रहे हैं, बल्कि उनके फ़न, हुनर और लेखकीय कर्म को लेकर भी बड़ी मात्रा में ट्रोल किया जा रहा है। ऐसे ट्रोल समय में जब लेखक और शायर बंट चुके हैं तो बांटे हुए शायरों में जो उस तरफ धकेल दिए गए हैं या उन्हें उस तरफ का मान लिया गया है। उन्हीं को एक ख़ास तरीके से टारगेट करके उनके लेखकीय-कर्म और लेखन को असंतुलित, अभद्र अहंवादी, सांप्रदायिक, अस्तरीय और उन्मादी करार दे दिया जा रहा है। आलोचकों द्वारा उनकी उन रचनाओं को मनचाहा कोड किया जा रहा है, जिनमें उन्हें थोड़ा बहुत घुसकर अपनी बेतुकी बात रखने का छद्म अवसर मिल जाता है। ऐसे लेखकों और शायरों को जातीय समीकरण में लपेटकर, उन्हें विशेष वर्ग का प्रतिनिधित्व बनाकर उन पर, उनके लेखन पर लगातार प्रहार किया जा रहा है और यह कोशिश की जा रही है कि इस प्रकार के लेखक समाज, देश हित में न लिखकर सांप्रदायिक हित में लिखने लगे हैं और नफरत, असहिष्णुता, असामाजिकता तथा असंतुलन को बढ़ावा देने में लगे हैं।

          ऐसे आक्षेप पिछले कई महीनों से ग़ज़लों की दुनिया के प्रसिद्ध शायर डॉ. राहत इंदौरी पर निरंतर लगाए जा रहे हैं और सिद्ध किया जा रहा है कि यह शायर जातीय-चेतना से बंधा हुआ एक शायर है जो अहंवादी है, जो असंतुलित शायरी करता है, जो सांप्रदायिकता को बढ़ावा देता है, कौमी एकता की जगह धार्मिकता, समुदायिकता को केंद्र में रखकर चलता है। जो चारण आलोचक अपने आलोचकीय दायित्व से भटक चुके हैं, वे इन दिनों राहत इंदौरी को ट्रोल करने में लगे हुए हैं। वास्तव में यह ट्रोल अपने दक्षिणपंथी रवैये के कारण, एक खास रंग के चश्मे के कारण, अपनी विचारधारा के कारण ऐसा करने का दायित्व अपने ऊपर ले बैठे हैं, जिससे टूटन के सिवा कुछ न निर्माण हो सकेगा। वे ऐसा इसलिए जानकार कर रहे हैं, क्योंकि उन्हें पता है कि राहत इंदौरी प्रतिपक्ष का मुस्लिम शायर है और यदि राहत इंदौरी की धारणाओं को तोड़ा न गया तो यह धारणा सारे लोक में पुख्ता रूप न ले ले। इसलिए अब दक्षिणपंथी लेखकों, आलोचकों द्वारा धारणाओं में विचलन पैदा करने की कोशिश लगातार की जा रही है और इस कोशिश में व्हाट्सऐप यूनिवर्सिटी के माध्यम से धारणाओं का विचलन पैदा करके पाठकों, श्रोताओं की धारणाओं को विशेष रंग में रंग दिया जाता है और फिर लेखक को कटघरे में खड़ा करके नफ़रतों के पत्थरों से ज़ख़्मी कर दिया जाता है यही तो ट्रोल की लिंचिंग है। डॉ. राहत इंदौरी के साथ भी इसी प्रकार का ट्रोल लिंचिंग निरंतर जारी है। जहां उनकी शायरी को लेकर लोगों के बीच बड़ा विचलन पैदा किया जा रहा है, अनर्थ चस्पा किया जा रहा है और दक्षिणपंथी सोच को मजबूत करते हुए सेकुलर सोच को कमजोर किया जा रहा है। आज सेकुलरिज़्म, मार्क्सवाद दक्षिणपंथियों के लिए एक चुनौती बनी हुई है, वह सेकुलरिज्म और मार्क्सवाद को अस्वीकार करते हैं, इसीलिए इन दो शब्दों को आज गाली देने के फैशन में इस्तेमाल किया जा रहा है। सेकुलरिज्म और मार्क्सवाद का विरोध इन दिनों सामुदायिक होकर सामने आया है और दक्षिणपंथी सोच अथवा विचारधारा को धार्मिक, सांस्कृतिक जामा पहनाकर प्रतिपक्ष की सोच को, उस विचारधारा को समाज के लिए घातक सिद्ध किया जा रहा है। जो दक्षिणपंथी ख़ेमे में से जुड़ा हुआ है वह सबसे बड़ा वफादार और सशक्त छद्म राष्ट्रवादी नागरिक मान लिया जाता है, जो छद्म-राष्ट्रवाद के निश्चित सांचे में ढला हुआ है। भले ही वह अपने व्यक्तिगत जीवन में कितना ही भ्रष्ट, कितना ही असहिष्णु, हिंसक, अनुदार, और कितना ही नफरत से भरा हुआ हो उसे सही स्वीकार करते हुए भी उसके प्रति कितना ही समर्थन जुटा लिया जाता है। जबकि वास्तविकता तो यह है कि दक्षिणपंथियों की वैचारिक असंगतियों और सांस्कृतिक हठधर्मिता को वह पहचानता भी नहीं और उनकी सोच को वह एक संस्कृतिक विशेषता मानकर ओढ़ लेता है तथा वह वैसी ही नारेबाजी करने के लिए उद्यत हो जाता है, जैसे कि आजकल सड़कों पर नारेबाजी की जा रही है।

         दक्षिणपंथियों द्वारा इन दिनों राहत इंदौरी को एक छद्म शायर माना जा रहा है, साथ ही उन्हें लोभी, लालची और डिप्लोमेटिक विचारधारा का शायर माना जा रहा है। डिप्लोमेटिक इसलिए माना जा रहा है कि वह अपनी शायरी में एक तरफ तो मुसलमानों की हिमायती कर जाते हैं, कौमी एकता की जगह सांप्रदायिकता को बढ़ावा देते हैं। दूसरा इसलिए भी डिप्लोमेटिक मान लिया गया है कि वह साथ ही साथ देशभक्ति की भी कहीं न कहीं थोड़ी बहुत बात कर जाते हैं, लेकिन उन्हें इन दिनों मुस्लिम समुदाय का एक प्रतिनिधि शायर मानकर, इस्लाम पर फक्र करने वाला तथा दूसरे धर्मों के प्रति असहिष्णु बर्ताव रखने वाला शायर सिद्ध करने की भरपूर कोशिश की जा रही है और उन्हें उनके उनकी एक ग़ज़ल के एक शेर पर बहुत ज्यादा ट्रोल किया गया जिसमें वह कहते हैं कि- सभी का ख़ून शामिल हैं यहाँ की मिट्टी में, किसी के बाप का हिंदुस्तान थोड़ी है। ये जो शहरियत का दावा है, आज़ादी के लिए दी गयी मुस्लिम शहादतें हैं उन सबसे नाइत्तेफकी दक्षिणपंथी आलोचक दर्शाना चाहते हैं। इसके अतिरिक्त और भी उनकी ऐसी ग़ज़ल की पंक्तियों को खोजकर लाया जाता है, जहां वे लोग जो दक्षिणपंथी हैं आसानी से प्रवेश कर जाते हैं और उन पंक्तियों का मनमाफिक गलत अर्थ निकालकर लोक में प्रसारित कर दिया जाता है। राहत इंदौरी को छद्म, जातीय क्लासिक शायर भी कहा जाने लगा है और उन्हें एक खास समुदाय से प्रेरित मानकर उन पर मुस्लिम होने का मूलम्मा जड़ दिया गया है। जबकि मुझे लगता है कि हर लेखक हर शायर लगभग तटस्थ होकर, या बचाव पक्ष में, बेबाक होकर, बिना किसी झुकाव के, बिना दबाव के, बिना किसी जातीय अस्मिता और गौरव-रक्षा के अपनी बात रखने में स्वतंत्र होता है और यही बात डॉक्टर राहत इंदौरी के साथ भी है। जहां वे उन मौलवियों को भी आड़े हाथ लेते हैं जो उनकी दृष्टि में निहायत गलत सिद्ध हो रहे हैं, लेकिन दक्षिणपंथी विचारधारा के उन आलोचकों को वह पंक्तियां कभी नजर नहीं आती हैं और नजर आती भी हैं तो उन्हें नजरअंदाज कर दिया जाता है और यह सिद्ध किया जाता है कि पूरे हिंदुस्तान का शायर न होकर वह हिंदुस्तान में बसी उस मुस्लिम संस्कृति, विचारधारा, इस्लामिक सोच का शायर है जो अपनी जातीय संस्कृति को बढ़ावा दे रहा है और असहिष्णुता, असंतुलन समाज में पैदा कर रहा है। वास्तव में डॉ. राहत इंदौरी को मुसलमान शायर होने का ठप्पा बार-बार लगाया जा रहा है, लेकिन इस ठप्पे की स्याही अभी इतनी काली, पक्की और गाढ़ी नहीं है कि यह ठप्पा सदैव के लिए उनकी शायरी पर लगाया जा सके। वरना वे ये न लिखते- ए वतन इक रोज़ तेरी ख़ाक में खो जाएँगे, सो जाएँगे मरके भी रिश्ता नहीं टूटेगा हिन्दुस्तान से, ईमान से या जब मै मर जाउ तो मेरी अलग पहचान लिख देना, खून से मेरे माथे पे हिन्दुस्तान लिख देना। यदि दक्षिणपंथी विचारधारा के आलोचक इस प्रकार की ट्रोल व्यवस्था के टूल के माध्यम से डॉ. राहत इंदौरी को एक खास वर्ग का शायर बनाकर शायरी के धरातल से बेदखल करने की साजिश रचते हैं तो उन्हें इतना अवश्य सोचना चाहिए कि डॉ. राहत इंदौरी की शायरी की जड़ें बहुत गहरी हैं जो बहुत दूर तक एक सहिष्णु, उदार और समन्वयी समाज की भूमि तक फैली हुई हैं। डॉ. राहत इंदौरी के लेखन और शायरी को किसी भी तरह से ट्रोल करके उसे दोष युक्त बताकर खास विचारधारा और जातीय संस्कृति की बताकर हाशिए पर धकेलने का काम में जितनी ऊर्जा बर्बाद की जा रही है, इससे बेहतर है कि ऐसे आलोचक कुछ और लेखक की सतकर्मों में लगे रहें ताकि उनका अपना भी वक्त बर्बाद न हो और समाज को वे कुछ दे पाएँ। डॉ. राहत इंदौरी किस शायरी के बरक्स उन शायरों को या उन लेखकों को खींचकर खड़ा किया जा रहा है जो या तो थोड़ी बहुत दक्षिणपंथी विचारधारा की बात का समर्थन कर गए, या गंगा-जमुनी की तहज़ीब वाले शायर रहे हों या उनकी शायरी में दक्षिणपंथियों को अपने विचारधारा की एक पुख्ता झलक दिखाई देने लगी हो। राहत इंदौरी के प्रतिपक्ष में कोई बड़ा शायर खोजकर लाने में दक्षिणपंथी विचारधारा के आलोचक सफल नहीं हो पा रहे हैं, इसलिए वे तरह-तरह के शायरों से तुलना करते हुए हिंदी के कवियों से तुलना करते हुए, डॉ. राहत इंदौरी को असहिष्णु, असंतुलित और प्रतिक्रियावादी शायर के रूप में चित्रित करने में लग जाते हैं और अंत में उनके हाथ में धूल आती है। वह दक्षिणपंथी विचारधारा के जातीय, सांस्कृतिक वैचारिक युद्ध को एक नया चेहरा नहीं दे पाते हैं और इसके एवज़ में वह राहत इंदौरी के लेखक-कर्म और शायरी को छद्म, असंतुलित करार दे दिया जाते हैं। मेरा यह भी मानना है कि राहत इंदौरी से उन शायरों लेखकों से तुलना क्यों की जा रही है, जो अलग-अलग शहरों में रहकर; अलग-अलग स्थितियों में पले-बड़े, अलग-अलग वैचारिक स्थितियां लिए हुए हैं और आपसी तुलना करके बताया जाता है कि अमुक लेखक अपने लेखन में बहुत सही, संतुलित और सहिष्णु है तथा डॉ. राहत इंदौरी की ग़ज़लें इनके आगे कुछ भी नहीं, बल्कि एक जातीय समीकरण को प्रस्तुत करने वाली, झूठी शोहरत बटोरने वाली ग़ज़लें हैं जो एक समुदायिकता के दायरे में है।

          डॉ. राहत इंदौरी की ग़ज़लों की शैली को लेकर भी बहुत कुछ ट्रोल किया गया कि उनकी ग़ज़लें मात्र मंचीय ग़ज़लें हैं जो मंच पर केवल चिल्लाहट पैदा करती हैं और ऐसी शैली बेकाम की शैली है, लेकिन इन दक्षिणपंथी आलोचकों के यह समझ में नहीं आया कि कौन सा अशआर, किस समय में, किस वज़न के साथ पढ़ा जाना चाहिए और उसका ध्वन्यात्मक प्रभाव किस हद तक शायरी को और भी जोरदार बना जाता है। डॉ. राहत इंदौरी पर बार-बार आक्षेप लगाया जाता है कि वह ग़ज़ल चिल्लाकर पढ़ते हैं, जिससे दर्शकों, श्रोताओं में दबाव बन जाता है और शायरी में गंभीरता की जगह मंचीयता, भोंडापन बढ़ जाता है। इस तरह की शैली का इस्तेमाल जब डॉ. राहत इंदौरी करते हैं तो यह अकेली एक बेहूदा शैली बन जाती है। मेरा ऐसा मानना है कि हर शायर की अदायगी, अपने नेचर पर डिपेंड रहती है और वह अपनी बात को किस तरह से असरदार, ज़ोरदार और वज़नदार रूप में रखें यह वह खुद ही निश्चित करता है, किसी के बताने या निश्चित तौर पर बंधे-बंधाए स्टाइल में रखने के लिए कोई भी शायर बाध्य नहीं होता है। बात मंच की आगई तो दर्शकों को या श्रोताओं को भी भुला नहीं जाता है। दक्षिणपंथी विचारधारा के आलोचकों द्वारा यह आक्षेप लगाया गया है कि राहत इंदौरी के समस्त श्रोता, दर्शक एक खास समुदाय से जुड़े हुए हैं जो मुस्लिम समुदाय है, उन्हीं का प्रतिनिधित्व राहत इंदौरी कर रहे हैं और ऐसे प्रतिनिधित्व में जितने भी श्रोता हैं वह एक ही कौम से हैं और वह सारे के सारे जाहिल, गंवार तथा विशेष जातीय समीकरण से जुड़े हुए हैं। तो मेरा इस पर कहना है कि जितना राहत साहब ने भारत में मंचो पर पढ़ा है उतना ही विदेशों में भी उन्होंने अपनी शायरी को पड़ा है, लाल क़ीले से भी पढ़ा है और ऐसी शायरी को सुनने वाले कई बार सरकारी व गैर सरकारी उच्च वर्ग के नागरिक भी शामिल होते हैं, क्या वे सभी जाहिल और जातीय समीकरण से बंधे हुए हैं?

          एक और बड़ा आरोप डॉ. राहत इंदौरी के व्यक्तित्व और उनकी शायरी पर लगाया जाता है कि न तो इनकी ग़ज़लों में कौमी एकता का कोई पक्ष मजबूत है और न ही वह इस पर कभी ज्यादा बल देते हैं। वास्तव में उनका शायर एक छद्म शायर है जो कौमी एकता की बात कम करता है और जातीय समीकरण को लेकर ज्यादा चलता है। जबकि वास्तविकता यह है कि उन्होंने अपनी ही कौम की कई असंतुलित अवस्थाओं पर खुला प्रहार किया है। डॉ. राहत इंदौरी पर एक और आरोप यह भी लगाया जाता है कि उनकी ग़ज़लें अंतर्विरोध से भरी पड़ी हैं। इस पर मेरा मानना है कि कोई भी शायर या कोई भी लेखक अंतर्विरोध से कभी अछूता नहीं रहा है पिछले समय में उसने जो कुछ लिखा है उसके प्रतिपक्ष में भी वह लिखने के लिए स्वतंत्र है और अपने लेखन शायरी को वह बार-बार दुरुस्त भी कर सकता है, लेकिन यह बात दक्षिणपंथी आलोचकों के गले नहीं उतरती है। उनका मानना है कि जो कुछ लिखा जाए वह केवल संतुलित, सधा हुआ, लक्षित और एक दिशा में लिखा हुआ होना चाहिए, जबकि वास्तविकता यह है कि लेखक का मनोविज्ञान, मानसिक अवस्था जिस तरह की होती है और उसे लगता है कि अपने समय समाज के प्रति उसे अपने अलग अंदाज में लिखना है तो वह किसी की परवाह किए बिना लिख जाता है। वैसे भी कवियों को निरंकुश माना जाता है और दक्षिणपंथी विचारधारा अंकुश की बात करके अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता, संप्रेषणीयता के के दायरे को खतरे में लाकर रख देती है। दक्षिणपंथी विचारधारा के आलोचकों ने डॉ. राहत इंदौरी को और उनकी ग़ज़लों को सनकी तक कहा गया है अर्थात उस रुग्ण मानसिकता की अवस्था में रचित ग़ज़लें हैं, जिनमें शायर एक सनक के दायरे में रचने लगता है जो बदले की भावना से रचित है, असहिष्णु है और जातीयता का समावेश करके चलती है। अर्थात ऐसे आलोचकों ने तो सम्पूर्ण रचना-प्रक्रिया पर ही सवालिया निशान लगा दिया है? डॉ. राहत इंदौरी पर यह भी आक्षेप निरंतर लगाया जा रहा है कि उन्होंने उनकी ग़ज़लें वायवी संसार की रचना की है जो यथार्थ की भूमि से अलग एक शायर की सनकी सोच और सामाजिक चेतना से बहुत दूर है। न तो उनकी ग़ज़लों में वर्ग संघर्ष की भावना है और न ही वे इस तरह की अभिव्यक्ति को दर्शाती हैं। राहत इंदौरी की समस्त ग़ज़लें उनके व्यक्तिगत जीवन की अस्त-व्यस्त विचारधारा और छद्म रूप को उजागर करने वाली रचनाएं हैं। मेरा मानना है कि इन आलोचकों ने अभी राहत इंदौरी की रचनाओं का उच्चस्तर पर गहन अध्ययन नहीं किया है जहां गंभीरता है, समाज सापेक्षता है, जहां सारी व्यवस्था के प्रति आक्रोश है, जहां सारी व्यवस्था के प्रति प्रश्नचिन्ह लगा दिया गया है? ऐसे आलोचकों को राहत इंदौरी नामक शायर इसलिए खलने लगा है कि यह शायद अपनी शायरी में प्रश्न पैदा क्यों करता है? क्यों प्रश्नों में सत्ता को खींच लाता है? सारी असम्मति, सारी पीड़ा इन आलोचकों की इसी बात को उजागर करती है।

          इसके अतिरिक्त दक्षिणपंथी आलोचकों द्वारा एक और मुहिम भी बड़े खुले तौर पर चलाई जा रही है जिसमें उर्दू शायरी और हिंदी शायरी को अलग अलग मानकर एक बड़ी खाई पैदा करने की साजिश रची जा रही है। मुस्लिम शायरों और उर्दू शायरी के सापेक्ष में ऐसे लेखकों और शायरों को जुटाया जा रहा है जो हिंदी में रचना कर रहे हैं, जिनमें कहीं कोई चारणपन है उसे वे अपने खेमे में घसीट लाते हैं और फिर उससे उर्दू शायरी खासकर राहत इंदौरी की शायरी से तुलना करने लगते हैं और सिद्ध करने लगते हैं कि उर्दू शायरी जातीय समीकरण की शायरी है जो एक मुस्लिम समुदाय का प्रतिनिधित्व करने वाली शायरी बनकर रह गई है। उसमें किसी भी तरह की जनवादीता का खुलापन और वर्ग चेतना नहीं है, आवाम की शायरी नहीं, बल्कि ऐसी शायरी के ऊपर जो परत चढ़ी हुई है- वह बेईमानी की, असहिष्णुता की और छद्म की परत चढ़ी हुई है। साथ ही साथ यह भी सिद्ध किया जा रहा है कि ऐसी शायरी बेबाक शायरी नहीं, बल्कि अनुशासनहीनता से भरी हुई है जो किसी जातीय संस्कृति की मात्र सनक की उपज है, जिसमें नियंत्रण का अभाव है जो कुछ असंतुलित और अनियंत्रित है, थोड़ी हिंसक है किसी जाति वर्ग समुदाय की तरह।

          एक और आक्षेप भी राहत इंदौरी पर लगाया जाता है कि राहत इंदौरी की समस्त शायरी सांप्रदायिकता से भरी हुई है और यह सांप्रदायिकता अपने हिंसक समाज की वैचारिकता का आकार है, कहीं न कहीं असहिष्णुता की बात करती है और समाज को गुमराह करती है। जबकि वास्तविकता यह है कि कोई भी लेखक अहंवादी होना ही पसंद करता है, लेकिन दक्षिणपंथी आलोचकों को चारण लेखक ही पसंद हैं जिनसे जो चाहे लिखवाया जा सके और गुणगान करवाया जा सके, मन की बात लिखवाने की सहूलियत मिल सके, एजेंडे पर लिखवाया जा सके। इस सांचे में डॉक्टर राहत इंदौरी जब फिट नहीं बैठते हैं तो उन्हें सांप्रदायिक शायर सिद्ध करके असंतुलित शायरी और अंतर्विरोध हो से भरी हुई शायरी का शायर बता दिया जाता है। अब तो उनकी ग़ज़लों को यहां तक कहा जाने लगा है कि उनकी ग़ज़लें न तो लयबद्ध, हैं न ही किसी भी प्रकार का संतुलन है, बल्कि वह अभद्र, संकीर्ण सोचवाली और एक स्लोगन टाइप वाली ग़ज़लें हैं जो अपनी प्रकृति में असंतुलन को पैदा करती है।

          दक्षिणपंथी आलोचकों को एक अपने सांचे में ढला हुआ लेखक और शायर/लेखक चाहिए जो उनकी जातीय अतीत गौरवशाली परंपरा का उल्लंघन न करें जो अपने मन की बात न करें, उनके मन की बात करे, जो चारण के सांचे में ढला हुआ हो, जिसके पास उनकी दी हुई क़लम हो, उनकी स्याही हो, जिसके हाथों में संतुलन से भरे विषयों की सूची हो, जिसमें कई विषय दे दिए जाएं और जिसके नीचे नियमों का उल्लेख हो कि इन नियमों में रहकर ही शायरी की जाए। तो ऐसे आलोचकों से मेरा कहना है कि फिर यह शायर, शायरी और अभिव्यक्ति को कसने के लिए एक शिकंजा है; जिसे यह आलोचक शायरों के लेखकों के हाथों में थमा देने के लिए बैठे हैं कि लो शिकंजा ख़ुद ही कस लो। यह चाहते भी यही है कि ऐसे शायरों लेखकों को कटघरे में ले लिया जाए और उन पर मनमाना मुकदमा चलाकर उन्हें किसी कैद में डाल दिया जाए, या उनकी ट्रोल लिंचिंग कर दी जाए। जबकि वास्तविकता यह है कि लेखक शायर अपने आप में स्वतंत्र, संतुलित सही, बेबाक और सच बात को रखने वाला होता है जो अपनी अभिव्यक्ति में समय समाज और सत्ता के विरुद्ध भी लिखता है और उनके लिए भी लिखता है। डॉक्टर राहत इंदौरी इसी प्रकार के एक शायर हैं जो किसी भी अर्थों में चारण नहीं और किसी के के आदेश पर कसी दूसरे की मन की बात लिखने वाले शायर हैं।

डॉ. मोहसिन ख़ान

स्नातकोत्तर हिन्दी विभागाध्यक्ष

एवं शोध निर्देशक

जे.एस.एम. महाविद्यालय,

अलीबाग-402 201

ज़िला-रायगड़-महाराष्ट्र

ई-मेल- Khanhind01@gmail.com

 

 

सोमवार, 12 जुलाई 2021

समीक्षा- सैलाब

समीक्षा- सैलाब (समीक्षक-अमिय प्रसून मल्लिक)

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शिद्दत से उकेरे लफ्ज़ हमेशा सैकड़ों मायने देते हैं, और उनकी सार्थकता हर शय में प्रासंगिक होती है. ऐसे ही ख़यालात का खूबसूरत गुलदस्ता है डॉ. मोहसिन 'तनहा' का ग़ज़ल संग्रह 'सैलाब'.


परिदृश्य प्रकाशन से निकली इस क़िताब में तकरीबन सौ बेहद सुन्दर ग़ज़ल हैं. सुन्दर और सकारात्मक एहसासों का पुलिंदा हैं उनकी ग़ज़लें, और उनको लिखने में जिस बारीक़ी और साफ़गोई को ख्यालों में पिरोया गया है, वो बात इस पुस्तक को औरों से अलग करती है.

ग़ज़ल लिखने में जिस क़ाफ़िया या रदीफ़ का ख़ास ख़याल रखना होता है, उस विधान को तोड़ते हुए अपनी बेबाक़ी से मोहसिन 'तनहा' जो इन ग़ज़लों में कह गए गए हैं, वो क़ाबिल-ए-तारीफ़ है. इस क़िताब की हर ग़ज़ल अपने आप में पूर्ण और सार्थक है, जिसका हमारी रोज़ की ज़िन्दगी से सीधा लेना- देना है. हम अक्सर ही जिन आरज़ुओं में जीते हैं और जिए जाने की आस बनाये रखते हैं, उसी घुटन, टूटन, स्वाँस, और लम्बी प्यास की जीती जागती तस्वीर 'तनहा' साहब की ग़ज़लों में क़रीने से महसूसा जा सकता है. बहुत कम ऐसी किताबें (काव्य/ग़ज़ल- संग्रह) आती हैं, जिनकी प्रायः रचनाएँ आपको पसंद आ जाए, या आप उनमें रोज़मर्रा की ज़िन्दगी की तस्वीरों को अपनी आँखों से देखें, पर मोहसिन 'तनहा' की यह क़िताब एक अपवाद- सा है, जिसकी हर रचना अपने-आप में कसी और सधी हुई है, और जिसका हर आमो-ख़ास आदमी से कहीं न कहीं जुड़ाव गोचर होता है, और मैं समझता हूँ, यह आपकी क़िताब का सुन्दरतम पहलू है जो इसे सफल बनाता है.

कुछ अश'आर इतने खूबसूरत हैं कि पढ़ते हुए आप इसलिए भी ठहर जाते हैं क्यूँकि अभी- अभी आपको अपनी आँखों के आगे अब तस्वीर गढ़नी है, ताकि आप आगे पढ़ने के क़ाबिल साबित हों. ज़रा ग़ौर करें;

''मुल्क़ को कभी हिन्दू, कभी मुसलमान बना रहे हैंI

ये सियासी  इसकी  कैसी  पहचान  बना  रहे  हैं II


तक़सीम हुआ है आदमी गुमराहियों के खंज़र से,

क्यों  यहाँ  लोग  चेहरे पे ऐसे  निशान  बना  रहे हैंI


...खाली हाथ किसी हथियार से कम नहीं होता,

थमाने को उसके हाथों में सामान बना रहे हैं...I''


ठीक उसी तरह, इन पंक्तियों में भी उनकी क़लम अतिशय ज़्यादा आघात करती है;


''तुम ही आँखें हमसे चुराते रहेI

हम फिर भी हाथ मिलाते रहेII


तोड़ना चाहा था रिश्ता खून का,

जाने क्या सोचकर निभाते रहेI


तेरे गुनाहों में हम भी हैं शरीक,

ताले क्यूँ जुबां पे लगाते रहे...I''


'तनहा' साहब सिर्फ मौजूँ कवियों- सा काव्य रचने में ही अपनी मशगूलियत नहीं दर्ज़ करते, उन्हें आवाम की आबो- हवा की फ़िक्र भी सताती है, और उसे भी वो अपनी क़लम से उकेरना चाहते हैं. साथ ही, जिस सार्थकता से वो बड़ी से बड़ी बात दो छंदों में कह जाते हैं, वो क़ाबिल-ए-ग़ौर है;


''वो कमज़ोर करता है अपनी नज़र को I

देखना  ही  नहीं  चाहता  अपने घर को II


अदब का माहिर है, लिखता पढ़ता है,

उसकी क़ाबिलियत नहीं पता नगर को...I''


घर- परिवार की घुटन, समाज की सिसकी, और अहम की झूठी तुष्टि के घालमेल से जो सार्वभौमिक समंदर उफ़नता है, 'तनहा' साहब ने उसे ही भरसक अपनी प्रायः ग़ज़लों का विषय बनाया है, और उनको कसने में जिन लफ़्ज़ों की कारीगरी दिखाई गयी है, वो उनके इस फन में तज़ुर्बा रखने की अगुवाई करती है.

कुछ अश'आर बड़े ही सलीके से आज के निकायों और उनमें उपजी रसूखों का नंगा चित्रण करते हैं, जिसे बहुधा आम लोगों ने रोज़मर्रे के दरम्यान झेला है, और जो इस कुंठित और लाचार 'सिस्टम' की बीमारी बन चुका है. एक बानगी देखिये;


''परवाज़ ही बस जिसका मक़सद है,

सोचो वो किस तरह का परिंदा हैI


मैंने बचपन से जिसे जवाँ देखा था,

ये मेरे वतन का वो ही बाशिंदा हैI


यूँ  मुँह  लगाने से सर पे और चढ़ेगा,

ये सरकारी दफ्तरों का क़ारिन्दा है...I''


अपनी सारी ग़ज़लों को लयबद्ध करने में जिस ख़ूबसूरती का मोहसिन 'तनहा' साहब ने इस्तेमाल किया है, उनमें सबसे ज़्यादा चर्चा की बात यह बनती है कि क़िताब की पूरी डिज़ाइनिंग और टाइपिंग आपने ख़ुद ही की है, जो आप और आपके किसी शाहकार के प्रति लगाव को दर्शाता है, और तिस पर अगर सार्थक कुछ निकले तो मिहनत यूँ ही सधी हुई समझी जानी चाहिए.


बिना किसी लाग- लपेट के,  आपकी ग़ज़लें बोलती हैं और उनके लफ्ज़ जिस तरीके से अपने मायनों के सन्दर्भ दिखाते हैं, वो गज़ब के सुन्दर ख़यालात जनते हैं, कि जिन बातों को हमने कभी सोचा, महसूसा, और जिनका प्रायः ही कई मौकों पर हवाला दिया, और जहाँ हर बार हमारे शब्द ही चूके, बस उसी की भरपाई इन ग़ज़लों ने बिना शर्त की. और यही इन ग़ज़लों का पाठक से अपनापन है, जो संग- संग चलता रहता है.


ग़ज़लों के जिस चिरकालिक विधान(बहर) का आपने अनुसरण नहीं किया, और जिस तथ्य को बड़े हौसले से आत्मसात भी किया, वो आपकी ग़ज़लों को और भी ख़ूबसूरती दे गया, और इरादतन ऐसा न करना आपकी रचनाओं को उतना ही ग्राह्य करता है, जिसे आम शब्दों में जन- संवाद कहा जाना चाहिए, और इसे मैं आपकी ग़ज़लों के गंभीर होने का बहुत बड़ा मंत्र समझता हूँ. हम सब रचनाएँ रचते हैं, पर अगर उसे पढ़के कोई समझे नहीं, तो उसकी सार्थकता संदेहास्पद हो जाती है, यह दीगर है कि रचनाकार की अपनी अलग सोच होती है, कोई जन- चेतना को लिखता है, कोई जन- संवाद करता है, और कोई आत्म-तुष्टि को अपना सुखन घोषित करता है.


मेरी समझ से, 'तनहा' साहब की यह किताब अन्य ग़ज़ल संग्रह या अन्य किताबों से कई मायनों में इसलिए भी अलग है, क्यूँकि अपनी व्यस्त दिनचर्या से उन्होंने इनकी ग़ज़लों को निचोड़ा है, और घूँट- घूँट अपनी ही प्यास को जीकर, इसमें उड़ेलते हुए लफ़्ज़ों को हरा किया है. आपने जो देखा और जिया है, उसी का बिलकुल सादा चित्रण है यह संग्रह.


दो- तीन मिशरे तो देखिये, किस दिलकश अंदाज़ में टीस ज़ाहिर होती है यहाँ, 


''जबसे जेब में सिक्कों की खनक हैI

तबसे उसके रवैये में कुछ फ़रक़ है II


चेहरा बदल रहा है लिबासों की तरह,

आँखों में न जाने कौन- सी चमक हैI


ये करवटें नहीं, तड़प है मेरे दर्द की,

अंदर ज़माने पहले की कसक है...I''


जिस अदा और और ठसक से आपके लफ्ज़ अपनी धमक पाठक पे दर्ज़ करते हैं, उसकी तारीफ़ तो बनती ही है. और फिर यहाँ हर ग़ज़ल की अपनी ख़ूबसूरती है, जिसे घोषित करना उसकी मिठास को आम करना है, क्यूँकि जो छुपा है, उसी में आकर्षण है, उसी का आस्वादन सम्भाव्य हो, और जो नकारात्मक है, वो नगण्य है. पुस्तक की छपाई- सफ़ाई लाजवाब है, और सिर्फ़ 150/- रु. में इसकी खरीद बहुत ही सुन्दर सौदों में से समझी जानी चाहिए, ख़ासकर उनके लिए जो पढ़ते हैं, और अच्छी किताबों के लिए प्रायः लालायित होते रहते हैं.


और चलते- चलते, जिसे हमारे चाहनेवालों ने समीक्षा की पंक्ति में डाल रखा है, वो दरअसल मेरी अपनी राय है, मतान्तर की संभावना होनी ही चाहिए तभी बातों में बात होती है.'तनहा' साहब की अगली क़िताब की आस में इसी क़िताब में उद्धृत एक शे'र अर्ज़ है,


''जब- जब अँधेरे घने काले हुए हैं,

यहाँ रोशनी फैलाने वाले हुए हैं I'' ***


               समीक्षक - अमिय प्रसून मल्लिक

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किताब- 'सैलाब(ग़ज़ल- संग्रह)'

रचनाकार- डॉ. मोहसिन 'तनहा'

परिदृश्य प्रकाशन, मुंबई

मूल्य- 150/-

शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2021

विश्व रेडियो दिवस : संकल्पना, सेवा और प्रसारण

 विश्व रेडियो दिवस : संकल्पना, सेवा और प्रसारण

संचार साधनों में सबसे महत्वपूर्ण, उपयोगी और मनोरंजक यदि कोई इलेक्ट्रॉनिक साधन रहा है तो वह रेडियो रहा है। न सिर्फ रेडियो ने विश्व को प्रभावित ही किया, बल्कि रेडियो ने जिस तरह से आम आदमी के दिल में जगह बनाई है और आम आदमी के लिए हर प्रकार से जिस तरह से कारगर सिद्ध हुआ है, आज तक किसी अन्य इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने इतनी सशक्त भूमिका नहीं निभाई है। 

विश्व रेडियो दिवस 13 फरवरी को विश्व स्तर पर मनाया जाता है। जैसा कि नाम से ही जाहिर है, यह दिन रेडियो के उपयोग के प्रति लोगों को प्रोत्साहित करने और प्रोत्साहित करने के लिए है। दिन का एक और महत्वपूर्ण हिस्सा अधिक से अधिक लोगों को रेडियो के इतिहास से अवगत कराना है। इस वर्ष, विश्व रेडियो दिवस की थीम को तीन उप-विषयों में विभाजित किया गया है, जैसे कि विकास, नवाचार और कनेक्शन। 2021 में विश्व रेडियो दिवस की दसवीं वर्षगांठ भी है।

यूनेस्को के अनुसार, रेडियो अभी भी दुनिया भर में संचार का सबसे व्यापक रूप से उपभोग किया जाने वाला माध्यम है। यूनेस्को ने यह भी उल्लेख किया है कि रेडियो स्टेशनों को विविध समुदायों की सेवा करनी चाहिए, कार्यक्रमों, दृष्टिकोणों और सामग्री की एक श्रृंखला के माध्यम से।

इस दिन को संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा 2012 में अपनाया गया था और तब से जब से इसे अंतर्राष्ट्रीय दिवस का दर्जा प्राप्त हुआ है। यूनेस्को के सदस्य देशों ने हालांकि 2011 में विश्व रेडियो दिवस की घोषणा की थी। इस विशेष दिन को चिह्नित करने के लिए दुनिया भर में कई तरह के आयोजन किए जाते हैं। इन आयोजनों में रेडियो के महत्व और इतिहास पर सेमिनार और चर्चाएँ शामिल हैं।

भारत में, इस दिवस को वास्तविक परिवर्तन (SMART) के लिए आधुनिक अनुप्रयोगों की तलाश और ऑल इंडिया रेडियो के सहयोग से मनाया जा रहा है। वे सभी संयुक्त रूप से एक कार्यक्रम का आयोजन करेंगे जो ‘न्यू वर्ल्ड, न्यू रेडियो’ थीम पर दो दिनों तक चलेगा। यह आयोजन 13 फरवरी और 14 फरवरी को आयोजित किया जाएगा। वर्तमान कोरोनावायरस महामारी की स्थिति के कारण, कुछ सत्र पूर्व रिकॉर्ड किए जाएंगे और घटना के दिन ऑनलाइन जारी किए जाएंगे। ऐसा करने के पीछे एकमात्र कारण लोगों की सुरक्षा सुनिश्चित करना है।

आयोजन के दौरान होने वाले सत्र वैश्विक स्वास्थ्य संकट, रेडियो के लचीलेपन के दौरान रेडियो के सामने आने वाली चुनौतियों और संचार के माध्यम के रूप में कितने मजबूत हैं, जैसे विषयों पर विचार करेंगे। एक सत्र भी होगा, जिसका शीर्षक होगा “लेसन्स फ्रॉम अक्रॉस द बॉर्डर्स”। इस सत्र में दुनिया भर के रेडियो विशेषज्ञों का एक पैनल शामिल होगा और चर्चा इस बात पर घूमेगी कि कैसे दुनिया 2020 में संकट से जूझ रही है।

सचमुच जनसंचार माध्यम का एक प्रमुख स्रोत रेडियो स्वीकार करना होगा। रेडियो की सक्रिय भूमिका हमारे जीवन में गहरे तक बनी हुई है। रेडियो के आविष्कार से लेकर वर्तमान समय तक रेडियो के बाहरी और आंतरिक रूप परिवर्तन हुए हैं, लेकिन उसकी छवि दिन पर दिन और भी अधिक मजबूत होती चली गई है। जहां डिजिटलाइजेशन के दौर में विजुअल को अधिक मान्यता मिली है, वहीं रेडियो ने भी अपनी जड़ें मजबूत की हैं। आज रेडियो छोटी सी चिप में समावेशित होकर हमारे हैंडसेट में मौजूद है यहां तक कि हमारे पेन, किचन और अन्य स्थानों पर भी रेडियो अपनी उपस्थिति लगातार दर्ज करा रहा है। ऐसा माना जाता रहा था कि रेडियो टेलीविजन के कारण पिछड़ जाएगा या उसका स्वरूप दब जाएगा, कुचल जाएगा; परंतु ऐसा नहीं हुआ। इस आशंका को निराधार साबित कर दिया रेडियो ने तब किया जब डिजिटलाइजेशन के दौर में कदम से कदम मिलाकर विजुअल पोजीशन से आगे निकलता हुआ दिखाई दिया है  आज सैकड़ों चैनल हमारे यहां मौजूद हैं, जो लोगों का मनोरंजन कर रहे हैं और साथ ही साथ ज्ञान की उपलब्धि और प्रसार को भी महत्व दे रहे हैं। वीडियो ने हमारे जीवन की बदलती स्थिति के साथ कदम मिलाते हुए निरंतर एक बेहतरीन साथी की भूमिका का निर्वाह किया है। जहां रेडियो की वस्तुस्थिति और उसके आकार में परिवर्तन आया है वहीं उसके कार्यक्रमों में भी लगातार परिवर्तन आया है। पहले एक अलग प्रकार की थीम पर कार्यक्रम हुआ करते थे, परंतु एफएम रेडियो के आगमन से अब रेडियो चैनलों में स्वतंत्रता का समावेश हो गया है और ऐसे मुद्दों को भी जोड़ा जा रहा है जिसे समाज वर्जित माना जाता था। जो सरकारी रेडियो द्वारा प्रसारित करने पर प्रतिबंधित माने जाते थे, लेकिन एक नुकसान यह हुआ है कि थोड़ा फूहड़ पर भी इसमें समावेशित हो चुका है। रेडियो ने हमें मनोरंजन के साथ सतर्क रहना भी सिखाया है। रेडियो की सेवा में लगातार कोविड महामारी के संबंध में चेतावनी, सावधानी, निर्देश और आदेशों का प्रसारण किया गया है। रेडियो की भूमिका हमारे जीवन की एक महत्वपूर्ण भूमिका के अंग के रूप में स्वीकार किए जाने चाहिए, कारण इसका यह है कि रेडियो विजुअल पोजीशन में ना होकर एक लिसनिंग पोजीशन में है जिसे हर जगह हर समय पर सुना जा सकता है। आज रेडियो वैकल्पिक व्यवस्था के साथ उपलब्ध होने के साथ विभिन्न चैनलों के माध्यम से हमारा मनोरंजन कर रहा है और हमें ज्ञान क्षेत्र की ओर भी आकर्षित कर रहा है। आज विश्व में कई रेडियो चैनल मौजूद हैं, एक क्लिक पर विश्व के सभी रेडियो को सुना जा सकता है जो अलग-अलग भाषाओं क्षेत्रीय भाषाओं को अपनाते हुए अपना काम बखूबी निभा रहे हैं। आधुनिक दौर में रेडियो की भूमिका और भी अधिक कारगर सिद्ध हो रही है क्योंकि रेडियो ने जिस तरह से एक विशेष छाप को तोड़ा है और अपनी नई छाप निर्मित की है उससे पता चलता है कि वह लोगों के जीवन में गहरे तक प्रवेश कर गया है। आज रेडियो कम्युनिटी रेडियो के रूप में भी मौजूद है, प्राइवेट रेडियो के रूप में मौजूद है और सरकारी रेडियो के रूप में भी मौजूद है। रेडियो ने जहां हमारे नैतिक स्तर को मजबूत किया है वही हमें जीवन के कई मार्ग भी सुझाए हैं और कई विशेषज्ञों ने हमारे जीवन के प्रश्नों को भी हल किया है। रेडियो के कार्यक्रमों ने सदा हमें ऐसा वातावरण निर्मित करके दिया है जिसमें हम स्वस्थ तरीके से संतुलित जीवन जी सकते हैं और प्रेरणा स्वरूप बहुत कुछ प्राप्त कर सकते हैं। रेडियो न केवल फिल्मी मनोरंजन की मांग को पूरा करता है साथ ही साथ होगा साहित्य, खेल, राजनीति, विज्ञान, समाचार, स्वास्थ्य, यातायात, मौसम तथा आंतरिक बाहरी दुनिया के समस्त वस्तु स्थितियों से अवगत कराता हुआ हमें अपनापन बांट रहा है।

विश्व में रेडियो की महत्वपूर्ण भूमिका होने के साथ उसकी उपयोगिता और महत्व तो निश्चित है ही, लेकिन भारत में #विविध_भारती क्षेत्र में सबसे अग्रणी है। विविध भारती ने 1948 जबसे अपने केंद्र की स्थापना की तब से लेकर आज तक रेडियो की उत्तरोत्तर प्रगति के बारे में विचार करता रहा है और उसके विकास में अप्रतिम सहयोग प्रदान किया है। वर्तमान समय में जिस तरह से विविध भारती अन्य चैनलो के मुकाबले एक स्तरीय, लाभदायक और जनवादी भावना लेकर चल रहा है वह न सिर्फ सराहनीय है, बल्कि प्रशंसनीय भी कहा जाना चाहिए। जहां आज रेडियो चैनलों की इतनी भीड़ हो गई है और तरह-तरह के नए से नए चैनल निकलने लगे हैं, लेकिन उन्होंने अपनी गुणवत्ता जिस तीव्रता से गँवाई है वहां उनका नकारात्मक और निंदनीय पक्ष कहा जाएगा। लेकिन जैसे-जैसे धीरे-धीरे समय के साथ संभालकर के गंभीरता से विविध भारती ने अपने को एक मुकाम पर लाकर खड़ा किया है वह बहुत बड़ा मकाम है, जो विश्व के रेडियो इतिहास में अवश्य दर्ज होगा ये रेडियो की गरिमा को बनाए रखने में सफल है। वर्तमान समय में विविध भारती सेवा में जो प्रिय, गंभीर, नॉलेजेबल, उद्घोषक विविध भारती और रेडियो को आगे बढ़ा रहे हैं उन्हें लाखों सलाम। कमल शर्मा, यूनुस खान, ममता सिंह, रेणु बंसल, शहनाज़ अख्तरी इत्यादि हैं, जिन्होंने नए से नए कार्यक्रमों को अपने श्रोताओं को लगातार नई-नई विविधताओं के साथ प्रदान किए हैं और उसमें रोचकता के साथ-साथ कई प्रकार की जानकारियों का समावेश करते रहे हैं। यह जानकारियां न सिर्फ श्रोताओं के लिए काम की होती हैं, बल्कि उनके जीवन का केंद्र भी बनती चली जा रही हैं। 

एफएम रेडियो चैनल में दो आर.जे. का बहुत महत्वपूर्ण नाम लिया जा सकता है। एक है जीतू राज और दूसरे हैं नावेद दोनों प्राइवेट रेडियो चैनल से लगातार जनसंपर्क की दुनिया में उतरते चले जा रहे हैं और एक आम आदमी के जीवन के आंतरिक वस्तु स्थितियों को छूते हुए उसकी संवेदनाओं के साथ लोक की संवेदनाओं को साझा कर रहे हैं। इन आर. जे. की जहां भाषा पर पकड़ है, वही विषय पर भी मजबूती दिखाई देती है साथ ही साथ वह श्रोताओं के आंतरिक मन को छूने में भी सफल सिद्ध हुए हैं। उनके कई कार्यक्रम अत्यंत लोकप्रिय हुए हैं और लगातार लोग उन्हें रेडियो पर सुनना पसंद करते रहे हैं। रेडियो को और भी अधिक उन्नत सफल तथा मनोरंजन पूर्ण साधन बनाने में रेडियो जॉकी अथवा आर.जे. का बहुत महत्वपूर्ण स्थान है यदि वह अपनी बोलने की कला कौशल से लोगों को प्रभावित करता है साथ ही साथ उनकी संवेदना ओं को भी छूता है और ज्ञान के प्रसार में भी सहयोग देता है तो एक सफल रेडियो जॉकी अर्थात आर. जे. बन सकता है। रेडियो ने जहां कलात्मकता को बढ़ावा दिया है, वहीं रोजगार की वस्तु स्थिति के लिए भी कई द्वार खोल दिए हैं। चाहे वह विज्ञापन की अवस्था हो या आर.जे. बनने की होड़ हो। रेडियो ने एक प्रतियोगिता का वातावरण भी निर्मित किया है और यह प्रतियोगिता स्वस्थ तथा रोजगार परक प्रतियोगिता के रूप में देखी जा सकती है।

'विश्व रेडियो दिवस' पर विश्व के सभी श्रोताओं को विश्व रेडियो दिवस की हार्दिक-हार्दिक शुभकामनाएं!!!


डॉ. मोहसिन खान

हिंदी विभागाध्यक्ष एवं शोध निर्देशक

जे. एस. एम. कॉलेज, अलीबाग-रायगड 

महारष्ट्र

बुधवार, 11 मार्च 2020

हस्तीमल ‘हस्ती’ की ग़ज़लें अम्न, मुहब्बत और इंसानियत का पैग़ाम

हस्ती जी के साथ डॉ. मोहसिन ख़ान
हस्तीमल ‘हस्ती’ जी ग़ज़ल की दुनिया के जाने-माने शायर हैं, वह न केवल एक बेहतर शायर हैं, बल्कि वह एक बेहतर इंसान भी हैं। बेहतर इंसान इन संदर्भों में कहे जा सकते हैं उनमें मानवीय संवेदनाएं दिखावे के तौर पर मौजूद नहीं हैं, बल्कि मानवीय संवेदनाओं के साथ खुलकर जीने वाली शख़्सियत उनके भीतर ज़िंदा है और यह शख़्सियत उन्हें अन्य लोगों से विशेष रूप में साहित्य जगत में अपनी चमकती छवि दर्ज कराती हुई दिखाई देती है। मैंने कई अवसरों पर हस्तीमल ‘हस्ती’ जी को बड़ी ही विनम्रता, मानवीय संवेदना और विविध भावों में डूबा हुआ देखा है। यह बात मैं किसी से सुनी-सुनाई नहीं कह रहा हूं, बल्कि मैंने देखा, जाना और परखा है। लगातार उनके संपर्क में कई बातों को लेकर रहा हूं और उन संपर्कों से यह निचोड़ निकला है कि वह एक बेहतर शायर होने के साथ-साथ बेहतर मानवीय संवेदनाओं के इंसान हैं। हस्तीमल ‘हस्ती’ से मेरी पहली मुलाकात मुंबई से थोड़ी दूर पुणे की तरफ स्थित खोपोली शहर के एक कॉलेज में हुई थी, जहां पर उर्दू-हिन्दी का एक सेमिनार आयोजित था। जिसमें उर्दू-हिंदी दोनों की रचनाओं को केंद्रित करके शायर और कवियों को बुलाया गया था, उसमें मैं भी शामिल था। तब उन्होंने उद्घाटन सत्र में अध्यक्षता की भूमिका का निर्वाह किया तभी से मैं उनके संपर्क में निरंतर रहा हूं और कई अवसरों पर उनसे मिलने, सुनने का विशेष लाभ प्राप्त हुआ है, जिसको मैंने कभी गंवाना नहीं चाहा। उनके साहित्य की एक सबसे बड़ी और ख़ास विशेषता यह कही जाएगी कि जगजीत सिंह ने उनकी रचनाओं को गाया है, जिसमें बहुत पहले जब उनकी ग़ज़ल आई थी तब ही मुझे बहुत पसंद आई- 
प्यार का पहला ख़त लिखने में वक़्त तो लगता है, 
नये परिंदों को उड़ने में वक़्त तो लगता है।
तब मैं एम. ए. का छात्र रहा हूंगा और इस ग़ज़ल के लिए मैंने कैसेट को खरीदा। तब उस पर पहली बार मैंने शायर का नाम हस्तीमल ‘हस्ती’ लिखा देखा, उस वक़्त मैं नहीं जानता था कि हस्तीमल ‘हस्ती’ कौन हैं और उनकी हस्ती क्या है? लेकिन अब धीरे-धीरे संपर्क से उनकी हस्ती को मैं जान गया और मैं नाज़ करता हूं कि हमारे समाज में ऐसी शख़्सियत हस्तीमल ‘हस्ती’ जी मौजूद हैं। 
हस्ती मल ‘हस्ती’ जी की कई रचनाओं को पढ़ते हुए मन में कई प्रकार के भाव जगे और उन भावों में डूबता-उतराता हुआ जीवन की न जाने किन गलियों की तरफ मुड़ता रहा और यह सारी गलियां किसी अच्छाई की तरफ़ ले जाती हुई मुझे मालूम होती हैं। जैसा कि स्पष्ट है हस्तीमल जी की दुनिया का पहला भाव मानवता और उसकी विभिन्न स्तर की प्रवृतियां नजर आती हैं, जिसमें वह कहीं पर भी अपने मानवीय स्वभाव को छोड़ना पसंद नहीं करते और दूसरों से भी उम्मीद करते हैं कि आप अगर मानव रूप में जन्म लेते हैं तो मानवता को सदैव बनाए रखें वह अपनी ग़ज़ल में लिखते हैं- 
मुहब्बत का ही इक मोहरा नहीं था, 
तेरी शतरंज पे क्या-क्या नहीं था। 
सज़ा मुझको ही मिलनी थी हमेशा,
मेरे चेहरे जो पे जो चेहरा नहीं था।
हस्ती जी की यह पंक्तियां सिद्ध करती हैं कि आज समाज में लोग चेहरे पर चेहरा चढ़ाए हुए घूम रहे हैं और न जाने कितने चेहरों को लिए वह ऐसा व्यवहार करते हैं। ऐसी अमानवीयता के खिलाफ़ वह डटकर खड़े हुए हैं और सबको यह समझाइश देते हैं कि इस दुनिया में ऐसी बिसात बिछी हुई है जहां पर मुहब्बत नहीं है, केवल चालबाज़ियाँ हैं। लोग ऐसा व्यवहार रखते हैं जिनमें अविश्वास है और धोखाधड़ी है।
उनकी यह पंक्तियां भी देखने लायक हैं, जो मानवीय संबंधों को स्पष्ट करती हैं-
कांच के टुकड़ों को महताब बताने वाले, 
हमको आते नहीं आदाब ज़माने वाले। 
दर्द की कोई दवा ले के सफर पर निकलो, 
जाने मिल जाएँ कहाँ ज़ख्म लगाने वाले।
यह पंक्तियां मानवीय संबंधों के संदर्भ में सच ही नज़र आती हैं कि जीवन में जिससे उम्मीद की जाए वही बदल जाता है और कब कौन कहां ज़ख्म दे दे, चोट पहुंचा दे इसका कोई निश्चित समय नहीं है। जिस तरह से दुनिया अपनी गति में आगे बढ़ रही है, उसमें मानवीय प्रवृतियां कहीं दब गई हैं और एक दिखावटी व्यवहार सब लोगों ने अपने भीतर पैदा कर लिया है। मुंह पर कुछ और दिल में कुछ और रखने वाले लोगों के लिए हस्ती जी की उपरोक्त पंक्तियां करारा जवाब रखती हैं।
इसी संदर्भ में उनकी यह पंक्तियां भी गौर करने लायक है-
ख़ुद अपने जाल में तू आ गया ना, 
सज़ा अपने किए की पा गया ना। 
कहा था ना यकीं मत कर किसी पर 
यकीं करते ही धोखा खा गया ना।
यह पंक्तियां मानवीय चरित्र के उस रूप को दर्शाती है, जहां पर विश्वास टूट रहे हैं कोई कितना ही किसी पर विश्वास करे, लेकिन अंत में विश्वास टूट जाता है। इस टूटे हुए विश्वास से उनका मन भी खंडित हो जाता है, वह अपनी पंक्तियों में सबको चेतावनी देते हैं कि इस तरह का व्यवहार दुनिया का दिन-ब-दिन होता जा रहा है, जहां विश्वास कम और धोखा बढ़ता जा रहा है। इस बात का बेहद अफ़सोस जताते हैं और अपनी ग़ज़ल में वह मानवीय प्रेम की चिंता को निरंतर दर्शाते रहते हैं।
मानवीय संबंध निरंतर बदलते चले जा रहे हैं, पिछली सदी की दुनिया हो या इस सदी की दुनिया। मानवता का धीरे-धीरे ह्रास होता चला जा रहा है, इस बात की भी चिंता निरंतर अपनी ग़ज़लों में करते रहे हैं। न केवल अपनी ग़ज़लों में करते हैं, बल्कि बातचीत के दौरान या किसी विशेष अवसरों पर भी इस बात को वह पुरज़ोर तरीके से उठाते हैं कि क्यों इस दुनिया में हमारे विश्वास टूटते जा रहे हैं? क्यों हम अपने आप में केंद्रित होते चले जा रहे हैं? क्यों विश्वास की मान्यता कमजोर पड़ने लगी है? क्यों हम विश्वास की जगह धोखे पाते जा रहे हैं? इस बात को वह यूँ कहते हैं-
साया बनकर साथ चलेंगे इसके भरोसे मत रहना, 
अपने हमेशा अपने रहेंगे इसके भरोसे मत रहना। 
सूरज की मानिंद सफ़र पे रोज़ निकलना पड़ता है, 
बैठे-बैठे दिन बदलेंगे इसके भरोसे मत रहना।
वे असल में स्पष्ट करते हैं कि किसी के भरोसे रहने की कोई ज़रूरत नहीं। यदि किसी के भरोसे रहे तो भरोसा भी टूट जाएगा और वह व्यक्ति भी अकर्मण्य हो जाएगा, इसलिए वह मानवीय प्रेम के साथ कर्मण्यता का भी सन्देश बराबर ज़ाहिर करते रहे हैं और आगे चलने की बात करते रहे हैं। यह आगे चलने वाला सिद्धांत उनको और हमें मानवता की तरफ ही ले जाता है, जो मानवता का संदेश बरसों से दिया जा रहा है यह भी उस संदेश को अपनी रचनाओं के माध्यम से फैलाना बराबर जारी रखते हैं।
जो सच के साथ खड़ा है वह कभी भी झूठ के सामने झुकना नहीं चाहेगा। हस्ती जी अपनी ग़ज़लों में और जीवन में सच के साथ खड़े हैं और झूठ की दीवार को गिराना चाहते हैं। कुछ लोग झूठ की दीवार पर चढ़कर झूठ के सरताज बने हुए हैं, इसलिए उनमें चापलूसी, बदज़ुबानी, बददिमागी और दुर्व्यवहार भरा पड़ा है, लेकिन हस्तीमल जी उस रास्ते पर आगे चल देते हैं, जहां पर मानवता के साथ अस्तित्व और खुद्दारी जुड़ी हुई है। वह चापलूसी, दुर्व्यवहार और लोगों के अपमान से बहुत दूर अपने आप में अस्तित्व और खुद्दारी रखने वाले एक अज़ीम शख़्स हैं जो इन बातों का खुलकर विरोध करते हैं और वह कहते हैं-
चिराग दिल का मुक़ाबिल हवा के रखते हैं, 
हर एक हाल में तेवर बला के रखते हैं। 
हमें पसंद नहीं जंग में भी मक्कारी, 
जिसे निशाने पे रखते हैं बता के रखते हैं।
यह अपने आप में बहुत बड़ी बात है कि एक साफगोई से एक व्यक्ति अपने मन की बात करता है और बराबर लोगों को बताता है कि हम अगर निशाने पर किसी को रखेंगे तो बता कर रखेंगे, पीछे से वार करने वाले लोग नहीं है, क्योंकि हस्तीमल जी में खुद्दारी कूट-कूट कर भरी हुई है।
अस्तित्व के प्रश्न को लेकर भी निरंतर चिंतित नजर आते हैं और इस चिंता से कई बातें ज़ाहिर करते हैं अस्तित्व के संदर्भ में वह कहते हैं-
चाहे जिससे भी वास्ता रखना, 
चल सको उतना फ़ासला रखना। 
चाहे जितनी सजाओ तस्वीरें, 
दरमियां कोई आईना रखना।
यह आईना, वह आईना है जो हर किसी के भीतर मौजूद है। यह वह भीतर का इंसान है जिसे हर किसी को समझना है और यही सदा अपने अस्तित्व को जगाता है। ऐसे भी किसी के आगे झुक नहीं जाना जिससे आपका अस्तित्व ख़तरे में पड़ जाए इसलिए वह अपनी खुद्दारी को निरंतर बनाए रखने में चिंतित नजर आते हैं। आज दुनिया खुद्दारी की दुश्मन हो चुकी है उसे लगता है कि कोई व्यक्ति खुद्दार है, उसकी खुद्दारी को किस प्रकार तोड़ा जाए? यही एक व्यापार सारी दुनिया में चल रहा है, चाहे दुनिया के बड़े-बड़े राष्ट्राध्यक्ष हों या हमारा पड़ोसी ही क्यों न हो, वह किसी को खुद्दारी के साथ जीने देना नहीं चाहता, जबकि खुद्दारी व्यक्ति का अपना मूल्य है। उनकी यह पंक्तियां विषय के संदर्भ में बड़ी सार्थक नजर आती हैं, वे लिखते हैं-
आ गया जब से समझ में राज़े खुद्दारी मुझे, 
गैर की चौखट लगे हैं उसकी चौखट भी मुझे।
इसी संदर्भ में वह अपनी एक अन्य ग़ज़ल में इस प्रकार से अभिव्यक्ति देते हैं-
ख़ुद-ब-ख़ुद हमवार हर इक रास्ता हो जाएगा, 
मुश्किलों के रूबरू जब हौसला हो जाएगा। 
तुम हवाएँ ले के आओ मैं जलाता हूँ चिराग। 
किसमें कितना दम है यारों फ़ैसला हो जाएगा।
इस प्रकार वे अपने अस्तित्व को बचाने के लिए चुनौतियों का सामना करते हैं और न वे केवल चुनौतियों का सामना करते हैं, बल्कि वह चुनौती भी देते हैं। उनकी निगाह में वह व्यक्ति बहुत धनवान है जो अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करता है और उसकी रक्षा करने के लिए हर समय डटा रहता है।
जिस तरह से दुनिया विकसित होती जा रही है, इस विकास में अशांति उतनी ही मात्रा में घुलती जा रही है। हस्ती जी की दुनिया को शांति का संदेश देना चाहते हैं। जैसा कि उन्होंने विरासत में शांति, अमन और समझौते को पसंद किया है। वे इस सद्मार्ग पर हर हाल में चलना चाहते हैं और लोगों को भी उस राह पर ले जाने के लिए आह्वान करते हैं। वह देख रहे हैं कि दुनिया में निरंतर अशांति का बोलबाला होता चला जा रहा है, लेकिन वह इस अशांति को शांति में बदलने के लिए पंक्ति कहते हैं-
उनको पहचाने भी तो कैसे कोई पहचाने,
अम्न चोले में हैं आग लगाने वाले।
यहां हस्तीमल जी बहुत यथार्थ और सच बात को अभिव्यक्ति देते हैं। यह सच है कि आज की दुनिया में अमन को फैलाने वाले जो लोग अगवा बनकर खड़े हुए हैं, वास्तव में वही अमन के दुश्मन हैं, अशांति के पैरोकार बनने वाले लोग यह दिखावा करते हैं कि वह शांति के साथ चल रहे हैं, लेकिन उन्होंने केवल यह शांति का चोला पहन रखा है। वास्तव में तो वह अमन के दुश्मन हैं इस प्रकार की सच और यथार्थ भरी बात भी अपनी ग़ज़लों में निरंतर कहते चले आए हैं। इसी संदर्भ में वह अपने अन्य ग़ज़ल में लिखते हैं- 
ऐसा नहीं कि लोग निभाते नहीं हैं साथ, 
आवाज़ दे के देख फ़सादात के लिए। 
इल्ज़ाम दीजिए न किसी ऐसे शख्स को, 
मुजरिम सभी हैं आज के हालात के लिए।
यह बात सच है कि अशांति कोई एक व्यक्ति, एक समुदाय पैदा नहीं कर रहा है। यह तो चारों तरफ से एक ऐसा भयानक आक्रमण है, जिससे किस दशा में बचा जाए, कोई हाल-ए-सूरत निकल आए? यह समझ नहीं आता है इसलिए वह किसी एक शख्स को अशांति पैदा करने के लिए ज़िम्मेदार नहीं ठहराते हैं, बल्कि वे दर्शाते हैं कि सबका कहीं न कहीं अशांति को आगे बढ़ाने में कुप्रयास है। इस कुप्रयास को ख़त्म करके शांति को आगे बढ़ाने का वह आह्वान निरंतर अपनी ग़ज़ल में करते हैं और दर्शाते हैं कि हम शांति को लेकर आगे बढ़ना चाहते हैं लेकिन अशांति का राज चारों तरफ़ बरकरार है।
निकले हो रास्ता बनाने को, 
तुमने देखा नहीं ज़माने को। 
अम्न तो हम भी चाहते हैं मगर, 
लोग आमादा हैं लड़ाने को।
यह बात सच है कि शांति को कुछ लोग भंग कर रहे हैं और इस भंग की दशा में हस्ती जी चाहते हैं कि मानवता बनी रहे और शांति का मार्ग सब लोग अपनाएं, परंतु कुछ लोग स्वार्थों के लिए अमन का क़त्ल कर रहे हैं और अशांति को बढ़ावा दे रहे हैं। वह चाहते हैं कि ऐसे लोगों का व्यापार रुक जाना चाहिए। वह अपनी ग़ज़ल में बार-बार अशांति की समस्या से संघर्ष करते हुए नज़र आते हैं और इस दुनिया को बहुत ख़ूबसूरत बनाने की कोशिश में लगे हुए हैं, लिखते हैं-
दार पर मुस्कुरा रहा है, वाह, 
क्या गज़बनाक हौसला है, वाह। 
लब पे अम्नो-अमान की बातें, 
काम दंगे-फ़साद का है वाह।
यह व्यंग्य करती हुई पंक्तियां दोगले चरित्र को चुनौती देती हैं और संकेत देती है कि यह जो लोग शीर्ष पर बैठे हुए हैं और शांति का पाठ निरंतर करते चले जा रहे हैं, वास्तव में उनके पाठ करने से कुछ नहीं होगा, बल्कि वही अपनी पीठ के पीछे ऐसा धंधा चला रहे हैं जिससे अशांति निरंतर समाज में विद्यमान हो रही है। जब तक यह अशांति विद्यमान होती रहेगी उनका यह झूठा पाठ चलता रहेगा और लोगों को उनके दोहरे चरित्र समझ नहीं पाएंगे। वे ऐसे दोहरे चरित्रों का पर्दाफ़ाश कर देते हैं तथा लोगों को अपनी रचनाओं के माध्यम से न केवल प्रेम, सद्भाव की बात करते हैं, बल्कि शांति की समस्या की ओर भी ध्यान आकर्षित करना चाहते हैं।
जिस व्यक्ति के भीतर मानवीय संवेदनाएं, मूल्य, अस्तित्व मौजूद होगा, वह व्यक्ति विनम्र, हितेषी, सद्व्यवहार करने वाला और प्रेम सौंदर्य से भरपूर होगा। हस्तीमल जी भी इस बात के बहुत क़रीब नज़र आते हैं। उनके भीतर प्रेम और सौंदर्य की झलक हमें उनकी ग़ज़लों में अभिव्यक्ति के तौर पर दिखाई देती है। वह जहां दुनिया के यथार्थ को इंगित कर रहे हैं वहीं जीवन में प्रेम और सौंदर्य के पक्ष में बड़ी दृढ़ता के साथ खड़े हुए हैं। उनकी प्रसिद्ध ग़ज़ल-
प्यार का पहला ख़त लिखने में वक़्त तो लगता है, 
नये परिंदों को उड़ने में वक़्त तो लगता है। 
जिस्म की बात नहीं थी उनके दिल तक जाना था, 
लंबी दूरी तय करने मैं वक़्त तो लगता है।
यहां उनके निस्वार्थ, सच्चे और रूहानी प्रेम की बात पता चलती है। वह केवल आकर्षण में बंधे हुए व्यक्ति नहीं और न ही रूपवादी होकर जिस्म को पाने की उनके भीतर लालसा है। वह तो प्रेम का मतलब रूह में उतरकर डूब जाना मानते हैं। यही प्रेम की सार्थकता भी है, इस दृशरी से गहरे प्रेम को दर्शाने वाली पंक्तियों की अभिव्यक्ति हुई है और यह पंक्तियां आज साहित्य तथा मोसिकी की दुनिया में मशहूर हो चुकी है।
वे प्रेम को जीवन का मूलभूत आधार मानते हैं। वह इस बात के लिए लोगों को तस्दीक करना चाहते हैं कि कोई कैसा व्यवहार करें और व्यक्ति किन्ही परिस्थितियों में पड़कर, कैसे भी हालात में ढलकर, कैसा भी हो जाए, लेकिन विकृति उसके भीतर न आने पाए इसलिए वह कहते हैं-
सब की सुनना, अपनी करना, 
प्रेम नगर से जब भी गुज़रना।
यह प्रेम नगर व्यक्ति के भीतर का वह आत्म-तत्व है, जहां व्यक्ति अपने अंदर हर एक के प्रति मानवीता रूपी प्रेम के बीज बोता है और इन बीजों को उगने के लिए वे अपने शब्दों का जल डालते हैं। यह शब्दों का जल आगे चलकर प्रेम की फसल पैदा करता है और चारों तरफ प्रेम का खेत लहलहाता है। उनकी दृष्टि में प्रेम सर्वोपरि है। व्यक्ति में मतभेद हो सकते हैं, आपसी विचारों में कटुताएँ आ सकती हैं, लेकिन इनको महत्व देना वे स्वीकार नहीं करते हैं। वह तो प्रेम को जीवन का आधार मानते हैं और किसी भी दशा में प्रेम को बचाए रखना चाहते हैं। व्यक्ति, व्यक्ति से दूर हो सकता है, नाराज़ हो सकता है, लेकिन कटुता को ही सर्वोपरि मान लिया जाए यह उनके लिए मुमकिन नहीं। इसलिए वह अपनी एक ग़ज़ल के मतले में कहते हैं-
प्यार में उनसे करूँ शिकायत ये कैसे हो सकता है, 
छोड़ दूं मैं आदाबे-मुहब्बत यह कैसे हो सकता है। 
यह आदबे-मुहब्बत उनके लिए महत्वपूर्ण ही नहीं, बल्कि ज़रूरी नज़र आती है। वह किसी भी दशा में इंसान से प्रेम करना नहीं छोड़ते हैं। इसी संदर्भ में वह सारी दुनिया को प्रेम का संदेश देते हुए उसे ख़ूबसूरत बनाने के लिए पंक्तियां लिखते हैं-
ख़ुशबुओं से चमन भरा जाए, 
काम फूलों सा कुछ किया जाए।
यह ख़ुशबू कुछ और नहीं, यह ख़ुशबू प्रेम की ख़ुशबू है, जो संसार को और बेहतर बनाने के लिए फैलाई जा रही है। यह ख़ुशबू हर एक इंसान में मौजूद है, लेकिन कुछ इंसान इसकी ख़ुशबू को सूंघ भी नहीं पाते हैं और महसूस भी नहीं कर पाते हैं। हस्तीमल जी अपने भीतर प्रेम की ख़ुशबू को बहुत ठीक ढंग से पहचानते हैं और ज़रूरी समझते हैं कि संसार इस प्रेम की ख़ुशबू को पहचाने और चारों तरफ़ यह ख़ुशबू फैल जाए, ताकि नफ़रतों की बदबू समाप्त हो जाए और यह दुनिया बेहतर से और बेहतर बनती चली जाए।
प्रेम, सौंदर्य के संबंध में वह न केवल मानवी प्रेम की या लौकिक प्रेम की बात करते हैं, वह अध्यात्म तक भी पहुंचते हैं और वह मिथक और पुराख्यानों को भी अपनी ग़ज़लों में समाहित कर लेते हैं। इसी प्रकार की एक ग़ज़ल की चार पंक्तियां इस प्रकार हैं-
दानिशमंदों के झगड़े हैं, 
हम नादां जिस में उलझे हैं। 
हम शबरी के बेर सरीखे, 
जैसे भी हैं प्रेम भरे हैं।
वह अपनी ग़ज़ल में शबरी का पुराख्यान ले आते हैं और शबरी को प्रेम का एक प्रतीक मानते हैं। कहीं न कहीं उनके भीतर इस प्रकार के प्रेम के पात्र बचपन से अब तक मौजूद हैं और वह इस प्रकार के पात्रों का बहुत सम्मान करते हुए उनके चरित्र को टटोलने की कोशिश भी अपनी अभिव्यक्तियों में करते हैं। 
जिस प्रकार से सत्य और ईमानदारी का पाठ सदियों से धर्म ग्रंथों सांस्कृतिक विरासत और पारिवारिक विरासत के रूप में चलता आया है वह सत्य और ईमानदारी के इन पक्षों को अपने भीतर उतार लेते हैं उनके भीतर निरंतर सत्य और ईमानदारी की बात घुलती हुई दिन पर दिन गाढ़ी होती चली जाती है। वह जानते हैं कि यह दुनिया सत्य और ईमानदारी की दुश्मन है, लेकिन वह ऐसे दुश्मनों के सामने डटकर खड़े हुए हैं और निडरता के साथ उनका मुकाबला करते हैं। वह अपनी रचनाओं में इस बात का संदेश देते हैं कि सत्य और ईमानदारी जीवन में हर मोड़ पर होना चाहिए, कभी हमें अपने स्वार्थ के लिए सत्य और ईमानदारी जैसे मूल्यों को छोड़ना नहीं चाहिए। इसलिए वह अपनी कई ग़ज़लों में इस बात को निरंतर अभिव्यक्ति देते हैं लिखते हैं-
लड़ने की जब से ठान ली सच बात के लिए, 
सौ आफ़तों का साथ है दिन-रात के लिए। 
उसने उसे फिज़ूल समझकर उड़ा दिया, 
बर्बाद हो चला हूँ मैं जिस बात के लिए।
इन पंक्तियों के माध्यम से देखा जा सकता है कि हस्ती जी सत्य और ईमानदारी को बचाए रखने के लिए संघर्ष का पथ अपनाते हैं और यह बात भी स्वीकार करते हैं कि इस सत्य और ईमानदारी के निर्वाह के लिए सोचो आफ़तें व्यक्ति पर आती हैं, लेकिन इन आफ़तों से घबराना नहीं चाहिए। यह आफ़तें एक उपहार के रूप में आती हैं, जिसे अपने दामन में सजाकर रख लेना चाहिए। इसी संदर्भ में अपनी एक और ग़ज़ल में लिखते हैं जिसका मसला इस प्रकार है-
सच कहना और पत्थर खाना पहले भी था आज भी है, 
बन के मसीहा जान गँवाना पहले भी था आज भी है।
यह बात सच है कि सदियों से सत्य को पत्थर मारा जा रहा है, इमानदारी को कुचला जा रहा है इस बात को वह अपनी ग़ज़ल में स्पष्ट करने के साथ उसके साथ उसके पक्ष को सार्थक मानते हुए पेरवी करते हैं। चाहे पत्थर मारे या सत्य, ईमानदारी को कुचला जाए, उसे हर हाल में बचाना होगा।
जीवन का कोई भी क्षेत्र हो उसमें स्वार्थ के लिए समझौते हो जाएँ, फिर तो आदमी की आदमीयत ही तिरोहित हो जाती है। वे स्वार्थ को त्यागने और समर्पण के महत्व को जगाने की बात करते हैं, इसलिए वह बार-बार अपनी रचनाओं में सत्य की बात करते हुए वकालत करते हैं और कहते हैं-
हर कोई कह रहा है दीवाना मुझे, 
देर से समझेगा ये ज़माना मुझे। 
सर कटा कर भी सच से न बाज़ आऊँगा, 
चाहे जिस वक़्त भी आज़माना मुझे।
इन पंक्तियों से स्पष्ट हो जाता है कि वह सत्य और ईमानदारी को बचाने के लिए अपने जीवन की भी परवाह नहीं करते हैं। वह दुनिया की उस अमानवीयता के आगे झुकना नहीं चाहते हैं जहां सत्य के बरक्स लालच, चापलूसी और झूठ खड़ा हुआ है। वह इन सब चीजों को चुनौती देते हुए सत्य का परचम ऊंचा करते हैं और ईमानदारी की भूमि पर दृढ़ता से आगे बढ़ते हैं।
आज झूठी दुनिया में सच बोलना एक जुर्म हो गया है और सच को तरह-तरह से काटा जा रहा है। कभी झूठी गवाही के नाम पर, कभी झूठे फरमानों के नाम पर, कभी मीडिया की चालबाज़ी के नाम पर सत्य को भ्रमित किया जा रहा है, लेकिन हस्ती जी इस सत्य को सत्य बताने के लिए इस बात के लिए आगे आते हैं और अपनी जान जोखिम में डालकर बेपरवाह होकर सत्य के पक्ष में कहते हैं
सच के हक़ में खड़ा हुआ जाए, 
जुर्म भी है तो यह किया जाए।
वास्तव में आज की दुनिया इतनी विषैली हो गई है कि जो विषधारी नहीं है, उनके सिर कुचल दिए जा रहे हैं और जो सच के हक़ में खड़े हुए हैं उनको विद्रोही करार दिया जा रहा है, लेकिन इस प्रकार की प्रवृतियों से हस्ती जी घबराते नहीं है। वह सच के हक़ में खड़े हुए बेबाकी से हैं और न केवल खड़े हुए वह दृढ़ता से सच के साथ बराबर आगे बढ़ते हुए भी दिखाई देते हैं।
हस्ती जी केवल मानवीयता, प्रेम, संवेदना, अस्तित्व, शांति और ईमानदारी के ही शायर  नहीं हैं, बल्कि उनकी दृष्टि बराबर वर्तमान जगत के यथार्थ पर भी बनी हुई है। वह जानते हैं कि वर्तमान कई विडंबना उसे भरा पड़ा है और इन विडंबनाओं में व्यवस्था एक ऐसा पक्ष है जिससे संघर्ष करके उसे सुधारना ही लाज़मी होगा। इस सुधार के पीछे बहुत सारी चुनौतियां भी उन्हें नज़र आती हैं और इन चुनौतियों से डरकर दूर नहीं जाते, बल्कि उनसे संघर्ष करते हुए हैं और अन्य से भी यहीअपेक्षा रखते हैं। उनके ग़ज़ल संग्रह में कई ग़ज़लें व्यवस्थाओं के प्रति आक्रोश और चुनौतियां दर्शाती हुई प्रतिनिधित्व करती हैं। वह इन चुनौतियों का सामना करते हुए व्यवस्था के खिलाफ़ अपनी आवाज़ बुलंद करते हैं और कहते हैं-
राजा को समझाने निकला, 
अपनी जान गँवाने निकला। 
सारी बस्ती राख हुई तब, 
बादल आग बुझाने निकला।
यह बात मामूली बात नहीं है, वह अपनी खुली हुई आंखों से यह मंज़र निरंतर देख रहे हैं और उन्हें यह बात नज़र आ रही है कि यहां जो तख़्त पर बैठा हुआ है, जो सब पर राज कर रहा है उसकी गलतियां बताना आम आदमी के हक़ से दूर हुई बात नजर आती है। आज व्यवस्था इतनी विद्रूप, विडंबनापूर्ण, भयानक और पेचीदा हो गई है कि हमारा सरमाएदार तानाशाह बन है। उसे उसकी गलतियां या उसकी कमियां गिनाई नहीं जा सकती हैं। यदि यह कमियां गिनाई जाएंगी तो गिनाने वाला व्यक्ति विद्रोही और देशद्रोही कहलाएगा। प्रशासन व्यवस्था बिगड़ी हुई है और औपचारिकता से भरी हुई नज़र आती है कि जब जो घटना घट जाती है उसका कोई असर व्यवस्था, शासन-प्रशासन पर नहीं होता है और न ही किसी को उस घटना से कोई राहत पहुंचाने के लिए शासन व्यवस्था आगे आती है । वह इस बात को अपनी एक और ग़ज़ल में इस प्रकार ढालते हैं-
काम करेगी उसकी धार, 
बाकी लोहा है बेकार। 
सारे तुगलक़ चुन-चुन कर, 
हमने बनाई है सरकार।
यहां वे शासन और प्रशासन व्यवस्था पर सीधा कटाक्ष फेंकते हैं और एक दुनिया की सत्य उजागर करते हैं कि शासन और प्रशासन व्यवस्था को जितना मुस्तैद रहकर जनहित कार्य करना चाहिए वह व्यवस्था उतनी ही विरोध में बेशर्मी से खड़ी हुई है। इसलिए कहीं उनकी रचनाओं में व्यंग्य की धार पैनी होकर भी आ गई है और यह तल्खी बहुत अच्छी भी लगती है। हर रचनाकार के लिए ज़रूरी है कि वह व्यवस्था और चुनोतियों का सामना करते हुए आगे बढ़ने का मार्ग अपनाए और व्यवस्थाओं का सुधार करने के लिए अपनी अभिव्यक्ति देना चाहिए, जो हस्तीमल हस्ती जी में बराबर मौजूद है। इसलिए उन्हें यथार्थ जीवन का चेतना संपन्न शायर भी कहना उचित होगा।
इसी तरह से व्यवस्थाओं के एक सच को वह सामने लाते हैं और दर्शाते हैं कि जिस तरह से प्रजातंत्र में नई-नई क़िस्म के झूठ के प्रयोग चल रहे हैं, वह हमें वास्तव में ठगने वाले ही प्रयोग हैं। बार-बार सामान्य जनता को उसकी तरक्की के सपने दिखाए जाते हैं और अंत में निराशा ही हाथ लगती है। जीवन जिस तरह से विडंबनाओं से घिरा हुआ है जहां टूटन, त्रास, अवमूल्यन, हिंसा, अपमान और आपाधापी मची हुई है, सरकार इसे अपने पक्ष में बराबर मज़बूत बनाए रखने के लिए दृढ़ संकल्प है। वह लोकतंत्र की ऐसी लचर व्यवस्था पर आक्षेप उठाते हुए कहते हैं-
कुछ नए सपने दिखाए जाएँगे, 
झुनझुने फिर से थमाए जाएँगे। 
आग की दरकार है फिर से उन्हें, 
फिर हमारे घर जलाए जाएंगे।
इस प्रकार से उनकी रचनाओं में आक्रोश, व्यवस्था विरोध, राजनीति पर व्यंग्य और चुनौतियां दिखाई देती हैं जो उन्हें विविधता का शायर बनाती है। वह किसी एक ट्रेक पर चलकर रचना करने वाले शायर नहीं हैं, बल्कि वे उन सारी गतिविधियों पर अपनी नज़र गड़ाए हुए हैं, जो मानव और मानवता के खिलाफ लगती है। वे निरंतर अपने सृजनशील संसार में व्यस्त रहते हुए इस बात की आशा करते हैं कि इस दुनिया को बेहतर बनाना होगा और समानता को क़ायम करना होगा। वह चाहते हैं कि हर एक आदमी को उसका हक बराबर रूप में मिले। यह दुनिया ख़ूबसूरत बने, कहीं धोखाधड़ी, अमानवीयतापन, हिंसा, अशांति न रहे और मनुष्य अपनी खुद्दारी के साथ जीवन जीते हुए उन मूल्यों की ओर अग्रसर रहे जो मानव जीवन के लिए अनिवार्य हैं। उनके भीतर से निकली हुई आवाज़ जब भी कभी किताबों के वर्कों पर लफ़्ज़ों के रूप में उभरकर आती है, वह किसी आयत से कम नहीं लगती है। उनके भीतर प्रेम, शांति और मानवीयता का ऐसा भाव है, जो वे अपनी शायरी में उतारकर लाते हैं और सबको अपनाने के लिए संदेश भी देते हैं। 
हस्ती जी जितने जीवन के व्यवहार में खुले हुए हैं, सबके साथ सद्व्यवहार रखने वाले और समभाव रखने वाले हैं, उसी प्रकार से इनकी ग़ज़लों में भी शब्दों का कोई बंधन नहीं है। वह जहां अरबी, फ़ारसी, तुर्की इत्यादि शब्दों का उर्दू के रूप में इस्तेमाल करते हैं, वहीं वे हिंदी शब्दों से भी परहेज़ नहीं करते हैं। वह अपनी ग़ज़लों में शब्दों के समायोजन और सामासिकता को महत्व देते हैं, वे साझी शाब्दिक तहज़ीब में विश्वास रखते हैं। जैसे विषयों में वैविध्य है वैसे ही लफ़्ज़ों के इस्तेमाल में भी वेराइटी है, इसलिए उनकी ग़ज़लों में सभी प्रकार के शब्द हमें दिखाई देते हैं, जिसमें हिंदी के शब्द भी अपनी ख़ूबसूरती के साथ शामिल हो चुके हैं। जैसे होम, शालाओं, सुभाव, जल, बांसुरी, स्नेह, युग, अंतर्मन, भगवानों, सपने, चक्र, प्रेम, शिखर इत्यादि। यह ऐसे शब्द हैं जो ग़ज़ल में फ़िट होकर कहीं भी अटपटे नहीं लगते हैं, बल्कि इन शब्दों के माध्यम से ग़ज़ल रोजमर्रा की जिंदगी को अभिव्यक्त करने में और भी सशक्त अभिव्यक्ति क्षमता से भर जाती है। माना जा सकता है कि आज के दौर के शायरों में हस्तीमल ‘हस्ती’ जी अपनी विशिष्ट छवि लेकर ग़ज़ल की दुनिया में जगमग आ रहे हैं, जिनका संपूर्ण साहित्य न केवल समाज में रोशनी बिखेर रहा है, बल्कि समाज को एक  सत्य पर राह जाता है, जिस पर चलकर समाज और भी सुंदर बनता है तथा सारी दुनिया खुशियों से भर जाती है।
डॉ. मोहसिन ख़ान
स्नातकोत्तर हिन्दी विभागाध्यक्ष 
जे. एस. एम. महाविद्यालय,
अलीबाग़-जिला-रायगढ़
(महाराष्ट्र) ४०२  २०१
 मोबाइल-०९८६०६५७९७० / ०८७९३८१६५३९ 
ई – मेल : Khanhind01@gmail.com           
www.sarvahara.blogspot.com
   पता निवास -
   ४०३, श्रेम सी व्यू अपार्टमेंट, पोस्ट ऑफिस के पीछे,
   अलीबाग़-जिला-रायगढ़                                                                              
   महाराष्ट्र – पिन - ४०२ २०१                                                                           
   दूरध्वनि+९१९८६०६५७९७०

रविवार, 30 जून 2019

आलेख - ओमप्रकाश वाल्मीकि



जन्मदिन पर (ओमप्रकाश वाल्मीकि) अब और नही-कविता विशेष पड़ताल 
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-परिचय
ओमप्रकाश वाल्मीकि का जन्म 30 जून 1950 को ग्राम बरला, जिला मुजफ्फरनगर, उत्तर प्रदेश में हुआ। आपका बचपन सामाजिक एवं आर्थिक कठिनाइयों में बीता।
आपने एम. ए तक शिक्षा ली। पढ़ाई के दौरान उन्हें अनेक आर्थिक, सामाजिक और मानसिक कष्ट व उत्पीड़न झेलने पड़े।
वाल्मीकि जी जब कुछ समय तक महाराष्ट्र में रहे तो वहाँ दलित लेखकों के संपर्क में आए और उनकी प्रेरणा से डा. भीमराव अंबेडकर की रचनाओं का अध्ययन किया। इससे आपकी रचना-दृष्टि में बुनियादी परिवर्तन आया।
अप देहरादून स्थित आर्डिनेंस फैक्टरी में एक अधिकारी के पद से पदमुक्त हुए। हिंदी में दलित साहित्य के विकास में ओमप्रकाश बाल्मीकि की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। आपने अपने लेखन में जातीय-अपमान और उत्पीड़न का जीवंत वर्णन किया है और भारतीय समाज के कई अनछुए पहलुओं को पाठक के समक्ष प्रस्तुत किया है। आपका मानना है कि दलित ही दलित की पीडा़ को बेहतर ढंग समझ सकता है और वही उस अनुभव की प्रामाणिक अभिव्यक्ति कर सकता है। आपने सृजनात्मक साहित्य के साथ-साथ आलोचनात्मक लेखन भी किया है।
आपकी भाषा सहज, तथ्यपूर्ण और आवेगमयी है जिसमें व्यंग्य का गहरा पुट भी दिखता है। नाटकों के अभिनय और निर्देशन में भी आपकी रुचि थी। अपनी आत्मकथा जूठन के कारण आपको हिंदी साहित्य में पहचान और प्रतिष्ठा मिली। 1993 में डा० अंबेडकर राष्ट्रीय पुरस्कार और 1995 में परिवेश सम्मान, साहित्यभूषण पुरस्कार से अलंकृत किया गया।
17 नवंबर 2013 को देहरादून में आपका निधन हो गया।
आपकी प्रमुख रचनाएँ हैं- सदियों का संताप, बस ! बहुत हो चुका (कविता संग्रह), सलाम (कहानी संग्रह) तथा जूठन (आत्मकथा), घुसपैठिए दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र (आलोचना)।
रचनाकार:
ओमप्रकाश वाल्मीकि


ओमप्रकाश वाल्मीकि) 30 जून
ओमप्रकाश वाल्मीकि उन शीर्ष साहित्यकारों में से एक हैं जिन्होंने अपने सृजन से साहित्य में सम्मान व स्थान पाया है। आप बहुमुखी प्रतिभा के धनी है। आपने कविता, कहानी, आ्त्मकथा व आलोचनात्मक लेखन भी किया है।
अपनी आत्मकथा "जूठन" से विशेष ख्याति पाई है। जूठन में आपने अपने और अपने समाज की पीड़ा का मार्मिक वर्णन किया है।
'जूठन' का अनेक भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। जूठन के अलावा उनकी प्रसिद्ध पुस्तकों में "सदियों का संताप", "बस! बहुत हो चुका" ( कविता संग्रह) तथा "सलाम" ( कहानी संग्रह ) दलित साहित्य का सौन्दर्य शास्त्र (आलोचना) इत्यादि है।
17 नवंबर 2013 को देहरादून में आपका निधन हो गया।
“अब और नहीं”

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ओमप्रकाश वाल्मीकि की कविता 'अब और नहीं' प्रतिनिधि कविता है, जिसके अंतर्गत ओमप्रकाश वाल्मीकि ने क्रांति का आह्वान किया है। यह क्रांति मनुवादी व्यवस्था के विरुद्ध है, सनातनी परंपरा के विरुद्ध है, यह क्रांति असमानता के विरुद्ध है, सामंतवाद के विरुद्ध है, यह क्रांति लोकतांत्रिक व्यवस्था को स्थाई तौर पर लागू करने के लिए है, यह क्रांति अस्पृश्यता, अन्याय, अत्याचार और मानवता की दुहाई की क्रांति है। कवि ने अपनी कविता में दलित समाज की समस्याओं को रखते हुए कविता में विद्रोह, संघर्ष और चुनौतियों की बात की है। विद्रोह जब तक नहीं होगा तब तक अन्याय अत्याचार से मुकाबला नहीं किया जाएगा और दलित समाज को जो चुनौतियां निरंतर मिल रही है उन चुनौतियों को मिटाने के लिए साहस और क्रांति का ही सहारा लेना होगा। इसलिए कवि ने इन महत्वपूर्ण तत्वों को अपनी कविता में स्थान दिया है। दलित समाज जो निरंतर सवर्ण समाज से संघर्ष कर रहा है, ऐसे समाज के प्रति वह खुलकर विद्रोह करते हैं और उनके खिलाफ खड़े हुए दिखाई देते हैं। इसका साफ़ साफ़ कारण यह है कि यह समाज में समानता, न्याय की भावना स्थापित करना चाहते हैं और दलित समाज के अस्तित्व को उभारना चाहते हैं। कवि ओमप्रकाश वाल्मीकि अपनी कविता में इन्हीं स्थितियों को खुले रूप में उजागर करते हैं।
1. विद्रोह और चुनौतियाँ-
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'अब और नहीं' कविता ओमप्रकाश वाल्मीकि की एक क्रांतिकारी और विद्रोही कविता मानी जा सकती है। इस कविता के माध्यम से कवि ने विद्रोह करने की भावना दलित समाज में जागृत करने का प्रयास किया है। दलित समाज जो बरसों से दबा कुचला और हाशिए पर फेंक दिया गया है, उसे विद्रोह के माध्यम से ही मुख्यधारा में जोड़ा जा सकता है। विद्रोह सवर्ण के प्रति, सनातनी व्यवस्था के प्रति, मनुवादी व्यवस्था के प्रति किया जा रहा है, जहां ऊंच-नीच की भावना, छुआछूत की भावना, जातिगत भावना अपने विशुद्ध रूप में मौजूद है। कवि ऐसी ही असमानता की भूमि को तोड़ना चाहता है और उसकी भूमि में समानता के बीज बोना चाहता है। समानता के बीच तब उग सकेंगे तब जब विद्रोह किया जाए। कवि के सामने बहुत सारी चुनौतियां हैं, सबसे बड़ी चुनौती मानवता की चुनौती है एक व्यक्ति को व्यक्ति न मानकर उसे निकृष्ट जानवर से भी बुरा माना जा रहा है। ऐसी स्थितियों को ओमप्रकाश वाल्मीकि समाप्त कर देने के लिए विद्रोह करने की भावना समक्ष रखते हैं। दलित समाज के समक्ष बहुत सी चुनौतियां हैं, चाहे जातिगत स्तर पर हो और अस्पृश्यता के स्तर पर, सामाजिक, आर्थिक स्तर पर समानता के स्तर पर धर्म भेद के स्तर पर या अन्य किसी स्तर पर इन सभी चुनौतियों का सामना दलित समाज को वर्षों से करना पड़ रहा है। इसीलिए ऐसी स्थितियों को मिटाने के लिए कभी अपनी कविता में विद्रोह का स्वरूप हारता है और दर्शाता है कि जब तक विद्रोह नहीं किया जाएगा इन चुनौतियों से मुकाबला नहीं किया जा सकता है। इन चुनौतियों का सामना विद्रोह के माध्यम से करना होगा और समाज में समानता और अधिकार की भावना को स्थापित करना होगा, इसीलिए कवि कहता है-
"आंख मिचौली खेलने का समय नहीं है यह
संभल-संभलकर कदम रखने वाले भी
मारे जाएंगे फर्जी मुठभेड़ों में
या फिर सांप्रदायिक दंगों में।"
2. साहस, संघर्ष और सामर्थ्य-
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दलित समाज जो सवर्ण समाज से वर्षों से प्रताड़ना सह रहा है, पीड़ा को सह रहा है, बाध्यता को झेल रहा है, ऐसे दलित समाज के अस्तित्व को भयानक खतरा उपस्थित हुआ है। अब दलित समाज संगठित होकर सामने आया है, परंतु कवि दर्शाता है कि मन में से तुम्हें हीनता की भावना को बाहर करना होगा और अपने आप को सामर्थ्यशाली घोषित करना होगा। यदि आपने अपने अस्तित्व और सामर्थ्य को नहीं तलाशा तो विद्रोह और क्रांति कभी नहीं की जा सकती है। इसलिए कवि अपने दलित समाज को उभारने के लिए साहस की बात भी कविता में करता है। यदि साहस की भावना क्रांतिकारियों के भीतर नहीं होगी तो कभी भी क्रांति नहीं की जा सकती है। क्रांति का संबल ही साहस होता है कवि ओमप्रकाश वाल्मीकि इसी साहस को दलित समाज के लोगों के सामने रखते हैं और कहते हैं कि भीतर से हीनता की ग्रंथि को बाहर निकाल कर फेंक दो साहस के साथ सामर्थ लाओ और फिर क्रांति करो क्योंकि हमारे सामने बहुत सी चुनौतियां मौजूद हैं। सकनघर्ष से ही इन चुनौतियों का सामना करना होगा। अपने को बचाने बनाए रखने के लिए आज संगठन, संघर्ष और सामर्थ्य की आवश्यकता है। कवि उस स्थिति को दर्शाता है जिसमें दलित समाज को एक गंदीगी के कीड़े के समान माना जाता है और इससे ज्यादा कुछ नहीं अपने अस्तित्व की तलाश के लिए वह अपरिमित धैर्य और साहस को क्रांति के माध्यम से सामने लाना चाहते हैं और सबसे महत्वपूर्ण बात साहस की करते हैं वे लिखते हैं-
"गंदगी के ढेर में किलबिलाते कीड़ों की तरह
खामोश जी कर भी क्या मिला
होठों की मुक्त हँसी
और उंगलियों का की सहज स्निग्धता
कहां गई
अदम्य साहस और अपरिमित धैर्य
रक्त की गर्म धारा बनकर बह गये
बरसाती गंदले पानी की तरह
या चिरायंध फैलाकर जल गये
अकस्मात लगी आग में।"
3. क्रांति और प्रगतिशीलता-
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'अब और नहीं' कविता जहां विद्रोह, चुनौती, साहस और सामर्थ्य की बात करती है, वहां क्रांति और प्रगतिशीलता को अपनी प्रमुखता के सामने कविता में रखती है। दलित समाज को मान-सम्मान तथा अस्तित्व की प्रबलता दिलाने के लिए क्रांति ही एक ऐसा मार्ग है, जिसके द्वारा इसे कायम किया जा सकता है। कवि इस बात को बहुत ठीक तरीके से जानता है कि बिना क्रांति के कुछ भी संभव नहीं है। चाहे यह क्रांति राजनीतिक स्तर पर हो, सामाजिक स्तर पर हो या अन्य किसी स्तर पर, क्रांति बेहद जरूरी है। दलित समाज जो बरसों से दबा, कुचला समाज है जिसे वर्षों से चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है, जो वर्षों से दहशत के बीच जी रहा है, इन सब से मुक्ति करने के लिए केवल साहस, धैर्य, सामर्थ्य ही नहीं, बल्कि इन सबका मिला-जुला रूप बनाकर हमें क्रांति की ओर अग्रसर होना होगा यही क्रांति हमें प्रगतिशीलता के पथ पर ले जाएगी वरना हम समाज के हाशिए के लोग जो बरसों से हाशिए पर हैं, पड़े रहेंगे समाज के हाशिए पर ही। कवि ओमप्रकाश वाल्मीकि ने अपनी कविता 'अब और नहीं' में इसी प्रकार से क्रांति की बात करते हुए प्रगतिशीलता के दायरे को विश्व सभ्यता से जोड़ने का प्रयास किया है और दर्शाया है कि मानव केवल मानव ही है और यह समानता ही समाज को प्रगतिशील समाज बना सकती है। उनकी दृष्टि में क्रांति करना विद्रोह करना जरूरी है कारण इसका यह है कि अमानवीय स्थितियां समाज में इतनी उत्पन्न हो गई है कि इन अमानवीय स्थितियों को समाप्त करना अब बेहद जरूरी हो गया है। क्रांति ही एक ऐसा हथियार है जिससे दलित समाज को इंसाफ दिलाया जा सकता है। क्रांति के बिना किसी भी तौर पर दलित समाज का उद्धार संभव नहीं है इसलिए ओमप्रकाश वाल्मीकि लिखते हैं-
"हजारों साल का मैल
रगड़-रगड़कर निकालने में
समय जाया मत करो
भीड़ भरी सड़कों पर
यातायात के बीच अपनी जगह बनाकर
रुकने का संकेत पाने से पहले
लाल बत्ती का चौराहा पार करना है।"
4. अस्तित्व की पुकार-
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'अब और नहीं' कविता अपने अंतिम चरण में अस्तित्व की पुकार की बात करती है। अस्तित्व दलित समाज का अस्तित्व, अस्तित्व मानवता का अस्तित्व, अस्तित्व समानता का अस्तित्व, अस्तित्व अस्पृश्यता से मुक्ति का अस्तित्व, अस्तित्व अन्याय से न्याय का अस्तित्व 'अब और नहीं' कविता अस्तित्व को प्रमुखता देती है और दर्शाती है कि यदि हमारे अस्तित्व को मिटाने का प्रयास किया गया तो हम विद्रोह करते हुए क्रांति करेंगे। दलित कविता का एक प्रमुख हथियार अस्तित्व की रक्षा करने के लिए विद्रोह करना है और यह विद्रोह मानवता की स्थापना के लिए विद्रोह है न कि केवल विद्रोह के लिए विद्रोह। ओमप्रकाश वाल्मीकि अपनी कविता में दलित समाज के अस्तित्व को उभारने के प्रयास के साथ-साथ दलित समाज को मुख्यधारा में लाने की बात करते हैं। वह कहते हैं कि हम से बरसों से अस्पृश्यता का अन्याय, अत्याचार, पीड़ा, त्रास, घुटन सवर्ण समाज से सहते आए हैं, अब और नहीं हो सकता है यह काला कारनामा या दहशतगर्दी का खेल। अब इसे समाप्त ही होना होगा। सवर्ण समाज, सनातनी व्यवस्था और मनुवादी व्यवस्था ने दलित समाज को हाशिए पर धकेल ने के साथ उन्हें बहुत अधिक त्रास, पीड़ा और घुटन दी तथा समाज से कटे रहने के लिए मजबूर किया। आर्थिक स्तर पर, सामाजिक स्तर पर, धार्मिक स्तर पर इनसे भेदभाव करने के साथ-साथ जातिगत स्तर पर अस्पृश्यता को बहुत अधिक मात्रा में बढ़ावा सवर्ण समाज ने दिया। आज इसी बाध्यता के कारण दलित समाज को क्रांति करना पड़ रही है, क्योंकि उनका अस्तित्व अब खतरे में है। इस खतरे से उभरने के लिए दलित समाज अस्तित्व की पुकार लगाता है और ओमप्रकाश वाल्मीकि अपनी कविता में अस्तित्व को तलाश करते हुए नजर आते हैं। ओमप्रकाश वाल्मीकि कहते हैं कि वर्षों से जब भी हम से बात की गई उस बात करने में पर प्रलाप और छद्म था। अर्थहीन तर्क और बेतुके शब्दों का इस्तेमाल हमारे साथ किया जा चुका है। इसी कारण दलित समाज में निराशा और हताशा छाई हुई है इसी निराशा और हताशा से पीछा छुड़ाने तथा इसे तोड़ने के लिए ओमप्रकाश वाल्मीकि कविता के माध्यम से आगे आते हैं और दर्शाते हैं कि जिस तरह से समन समाज ने चतुर्दिक चतुराई भरे शब्दों का प्रयोग हमारे साथ किया और हमारे अस्तित्व को समाप्त करने का प्रयास किया अब और नहीं हो सकता है यह खेल। वे अपनी कविता में इस स्थिति को उजागर करते हुए लिखते हैं-
"छद्मवेशी शब्दों का प्रलाप जारी है
सुन चुके अर्थहीन तर्क भी
बहुत दिन जी चुके हताशा और नैराश्य के बीच
कलाबाज़ियों और चतुराई भरे शब्दों का
खेल हो चुका
अब और नहीं
तय करना होगा
कहां खड़े हो तुम
साये या धूप में!"
ओमप्रकाश वाल्मीकि की प्रतिनिधि कविता 'अब और नहीं' उस स्थिति को दर्शाती है जिसमें सवर्ण समाज सनातनी व्यवस्था और मनुवादी व्यवस्था ने दलित समाज को कितनी अधिक चुनौतियां प्रदान की हैं। कितना अधिक उन्हें बाध्य किया है। कितना अधिक उनपर अत्याचार किया है। ऐसी तमाम स्थितियां हमें इस कविता में नजर आती हैं, लेकिन इस स्थिति को तोड़ने के लिए ओमप्रकाश वाल्मीकि 'अब और नहीं' जैसी कविता रचते हैं और दर्शाते हैं कि विद्रोह हमें करना होगा सवर्णों के खिलाफ अपनी जातिगत अस्तित्व को बचाने के लिए संघर्ष करना होगा और जिन चुनौतियों का सामना हमें करना पड़ रहा है उनसे बराबर निपटना होगा। इसके लिए साहस और सामर्थ्य की जरूरत है। सब लोग संगठित हो संघर्ष करें और ऐसी भयानक स्थिति को समाप्त करदें। कवि ओमप्रकाश वाल्मीकि ऐसी भयानक स्थिति को क्रांति के मार्ग के द्वारा समाप्त करना चाहते हैं और अपने अस्तित्व की तलाश करते हुए सावन समाज से खुलकर संघर्ष करते हैं और विद्रोह करते हैं।

सोमवार, 11 मार्च 2019

ग़ज़ल

संभल जाता हूँ मैं चाहे डगर चिकनी हो।
भले आदत लाख बहकने की अपनी हो।

कम बोलो और सोच, समझ के बोलो तुम,
लेकिन जब बोलो बात तो बात वज़नी हो।

मुक़ाबला किया डट के हार की फ़िक्र किसे,
अगर शोहरत हो मेरी तो तेरी जितनी हो।

झूठ बोलूंगा नहीं किसी दबाव में आकर,
तेरी तरफ़ से भले ही साज़िश कितनी हो।

झुकाउंगा नहीं सिर मैं सामने 'तनहा' तेरे,
ये गर्दन कट जाए चाहे जब कटनी हो।
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©मोहसिन 'तनहा'🇮🇳

रविवार, 3 मार्च 2019

युद्धों ने दिया है (कविता)

युद्धों ने दिया है
झुलसता नंगा बचपन,
बदसूरती जो छिपाए न छिपे,
हर तरफ़ आग ही आग
और बदबूदार धुँआ,
बेतहाशा भूख, प्यास और
झुलसाती धूप, जमा देने वाली ठंड
अंतहीन पीड़ा,
अपनों के मारे जाने की,
बेघर होकर शरणार्थी बनने की,
दवाओं, पानी और
रोटी के टुकड़ों की भीख।

युद्धों ने दिया है
कोख में मारे जाने वाला घना अंधेरा,
भटकन भरे दिन और
भयानक रातें
स्कूलों के मलबे में दबी हुई किताबें,
लाशों के बीच
अपने मालिक को सूंघता हुआ कुत्ता,
उजड़े हुए घर
हर तरफ़ गर्दज़ाद मंज़र।

युद्धों ने दिया है
उजड़े हुए शहर का सूनापन,
हर तरफ़ रेंगती हुई मनहूसियत
बिजलियों के टूटे खंबे
कुएं, तालाब और नदियों का
काला, ज़हरीला पानी
थरथराती हवा की बेचारगी
आवारा हुए ज़ख़्मी जानवर।

युद्धों ने दिया है
सपनों का टूट जाना
इच्छाओं की हत्या
अधूरी अंधेरे भरी ज़िंदगी
ख़ुशबुओं का मर जाना
तितलियों का चट्टान हो जाना
रंगों का बेरंग हो जाना।

युद्धों ने दिया है
काम पर से घर न पहुंच पाना
चाभी जेब मे हो और
घर का ढह जाना
पालतू परिंदे की
बिना मालिक के मौत हो जाना।

युद्धों ने दिया है
आदमी का आदमी के हाथों मारे जाना।
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©डॉ. मोहसिन खान🇮🇳