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सोमवार, 11 मार्च 2019

ग़ज़ल

संभल जाता हूँ मैं चाहे डगर चिकनी हो।
भले आदत लाख बहकने की अपनी हो।

कम बोलो और सोच, समझ के बोलो तुम,
लेकिन जब बोलो बात तो बात वज़नी हो।

मुक़ाबला किया डट के हार की फ़िक्र किसे,
अगर शोहरत हो मेरी तो तेरी जितनी हो।

झूठ बोलूंगा नहीं किसी दबाव में आकर,
तेरी तरफ़ से भले ही साज़िश कितनी हो।

झुकाउंगा नहीं सिर मैं सामने 'तनहा' तेरे,
ये गर्दन कट जाए चाहे जब कटनी हो।
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©मोहसिन 'तनहा'🇮🇳

रविवार, 3 मार्च 2019

युद्धों ने दिया है (कविता)

युद्धों ने दिया है
झुलसता नंगा बचपन,
बदसूरती जो छिपाए न छिपे,
हर तरफ़ आग ही आग
और बदबूदार धुँआ,
बेतहाशा भूख, प्यास और
झुलसाती धूप, जमा देने वाली ठंड
अंतहीन पीड़ा,
अपनों के मारे जाने की,
बेघर होकर शरणार्थी बनने की,
दवाओं, पानी और
रोटी के टुकड़ों की भीख।

युद्धों ने दिया है
कोख में मारे जाने वाला घना अंधेरा,
भटकन भरे दिन और
भयानक रातें
स्कूलों के मलबे में दबी हुई किताबें,
लाशों के बीच
अपने मालिक को सूंघता हुआ कुत्ता,
उजड़े हुए घर
हर तरफ़ गर्दज़ाद मंज़र।

युद्धों ने दिया है
उजड़े हुए शहर का सूनापन,
हर तरफ़ रेंगती हुई मनहूसियत
बिजलियों के टूटे खंबे
कुएं, तालाब और नदियों का
काला, ज़हरीला पानी
थरथराती हवा की बेचारगी
आवारा हुए ज़ख़्मी जानवर।

युद्धों ने दिया है
सपनों का टूट जाना
इच्छाओं की हत्या
अधूरी अंधेरे भरी ज़िंदगी
ख़ुशबुओं का मर जाना
तितलियों का चट्टान हो जाना
रंगों का बेरंग हो जाना।

युद्धों ने दिया है
काम पर से घर न पहुंच पाना
चाभी जेब मे हो और
घर का ढह जाना
पालतू परिंदे की
बिना मालिक के मौत हो जाना।

युद्धों ने दिया है
आदमी का आदमी के हाथों मारे जाना।
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©डॉ. मोहसिन खान🇮🇳