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सोमवार, 12 जुलाई 2021

समीक्षा- सैलाब

समीक्षा- सैलाब (समीक्षक-अमिय प्रसून मल्लिक)

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शिद्दत से उकेरे लफ्ज़ हमेशा सैकड़ों मायने देते हैं, और उनकी सार्थकता हर शय में प्रासंगिक होती है. ऐसे ही ख़यालात का खूबसूरत गुलदस्ता है डॉ. मोहसिन 'तनहा' का ग़ज़ल संग्रह 'सैलाब'.


परिदृश्य प्रकाशन से निकली इस क़िताब में तकरीबन सौ बेहद सुन्दर ग़ज़ल हैं. सुन्दर और सकारात्मक एहसासों का पुलिंदा हैं उनकी ग़ज़लें, और उनको लिखने में जिस बारीक़ी और साफ़गोई को ख्यालों में पिरोया गया है, वो बात इस पुस्तक को औरों से अलग करती है.

ग़ज़ल लिखने में जिस क़ाफ़िया या रदीफ़ का ख़ास ख़याल रखना होता है, उस विधान को तोड़ते हुए अपनी बेबाक़ी से मोहसिन 'तनहा' जो इन ग़ज़लों में कह गए गए हैं, वो क़ाबिल-ए-तारीफ़ है. इस क़िताब की हर ग़ज़ल अपने आप में पूर्ण और सार्थक है, जिसका हमारी रोज़ की ज़िन्दगी से सीधा लेना- देना है. हम अक्सर ही जिन आरज़ुओं में जीते हैं और जिए जाने की आस बनाये रखते हैं, उसी घुटन, टूटन, स्वाँस, और लम्बी प्यास की जीती जागती तस्वीर 'तनहा' साहब की ग़ज़लों में क़रीने से महसूसा जा सकता है. बहुत कम ऐसी किताबें (काव्य/ग़ज़ल- संग्रह) आती हैं, जिनकी प्रायः रचनाएँ आपको पसंद आ जाए, या आप उनमें रोज़मर्रा की ज़िन्दगी की तस्वीरों को अपनी आँखों से देखें, पर मोहसिन 'तनहा' की यह क़िताब एक अपवाद- सा है, जिसकी हर रचना अपने-आप में कसी और सधी हुई है, और जिसका हर आमो-ख़ास आदमी से कहीं न कहीं जुड़ाव गोचर होता है, और मैं समझता हूँ, यह आपकी क़िताब का सुन्दरतम पहलू है जो इसे सफल बनाता है.

कुछ अश'आर इतने खूबसूरत हैं कि पढ़ते हुए आप इसलिए भी ठहर जाते हैं क्यूँकि अभी- अभी आपको अपनी आँखों के आगे अब तस्वीर गढ़नी है, ताकि आप आगे पढ़ने के क़ाबिल साबित हों. ज़रा ग़ौर करें;

''मुल्क़ को कभी हिन्दू, कभी मुसलमान बना रहे हैंI

ये सियासी  इसकी  कैसी  पहचान  बना  रहे  हैं II


तक़सीम हुआ है आदमी गुमराहियों के खंज़र से,

क्यों  यहाँ  लोग  चेहरे पे ऐसे  निशान  बना  रहे हैंI


...खाली हाथ किसी हथियार से कम नहीं होता,

थमाने को उसके हाथों में सामान बना रहे हैं...I''


ठीक उसी तरह, इन पंक्तियों में भी उनकी क़लम अतिशय ज़्यादा आघात करती है;


''तुम ही आँखें हमसे चुराते रहेI

हम फिर भी हाथ मिलाते रहेII


तोड़ना चाहा था रिश्ता खून का,

जाने क्या सोचकर निभाते रहेI


तेरे गुनाहों में हम भी हैं शरीक,

ताले क्यूँ जुबां पे लगाते रहे...I''


'तनहा' साहब सिर्फ मौजूँ कवियों- सा काव्य रचने में ही अपनी मशगूलियत नहीं दर्ज़ करते, उन्हें आवाम की आबो- हवा की फ़िक्र भी सताती है, और उसे भी वो अपनी क़लम से उकेरना चाहते हैं. साथ ही, जिस सार्थकता से वो बड़ी से बड़ी बात दो छंदों में कह जाते हैं, वो क़ाबिल-ए-ग़ौर है;


''वो कमज़ोर करता है अपनी नज़र को I

देखना  ही  नहीं  चाहता  अपने घर को II


अदब का माहिर है, लिखता पढ़ता है,

उसकी क़ाबिलियत नहीं पता नगर को...I''


घर- परिवार की घुटन, समाज की सिसकी, और अहम की झूठी तुष्टि के घालमेल से जो सार्वभौमिक समंदर उफ़नता है, 'तनहा' साहब ने उसे ही भरसक अपनी प्रायः ग़ज़लों का विषय बनाया है, और उनको कसने में जिन लफ़्ज़ों की कारीगरी दिखाई गयी है, वो उनके इस फन में तज़ुर्बा रखने की अगुवाई करती है.

कुछ अश'आर बड़े ही सलीके से आज के निकायों और उनमें उपजी रसूखों का नंगा चित्रण करते हैं, जिसे बहुधा आम लोगों ने रोज़मर्रे के दरम्यान झेला है, और जो इस कुंठित और लाचार 'सिस्टम' की बीमारी बन चुका है. एक बानगी देखिये;


''परवाज़ ही बस जिसका मक़सद है,

सोचो वो किस तरह का परिंदा हैI


मैंने बचपन से जिसे जवाँ देखा था,

ये मेरे वतन का वो ही बाशिंदा हैI


यूँ  मुँह  लगाने से सर पे और चढ़ेगा,

ये सरकारी दफ्तरों का क़ारिन्दा है...I''


अपनी सारी ग़ज़लों को लयबद्ध करने में जिस ख़ूबसूरती का मोहसिन 'तनहा' साहब ने इस्तेमाल किया है, उनमें सबसे ज़्यादा चर्चा की बात यह बनती है कि क़िताब की पूरी डिज़ाइनिंग और टाइपिंग आपने ख़ुद ही की है, जो आप और आपके किसी शाहकार के प्रति लगाव को दर्शाता है, और तिस पर अगर सार्थक कुछ निकले तो मिहनत यूँ ही सधी हुई समझी जानी चाहिए.


बिना किसी लाग- लपेट के,  आपकी ग़ज़लें बोलती हैं और उनके लफ्ज़ जिस तरीके से अपने मायनों के सन्दर्भ दिखाते हैं, वो गज़ब के सुन्दर ख़यालात जनते हैं, कि जिन बातों को हमने कभी सोचा, महसूसा, और जिनका प्रायः ही कई मौकों पर हवाला दिया, और जहाँ हर बार हमारे शब्द ही चूके, बस उसी की भरपाई इन ग़ज़लों ने बिना शर्त की. और यही इन ग़ज़लों का पाठक से अपनापन है, जो संग- संग चलता रहता है.


ग़ज़लों के जिस चिरकालिक विधान(बहर) का आपने अनुसरण नहीं किया, और जिस तथ्य को बड़े हौसले से आत्मसात भी किया, वो आपकी ग़ज़लों को और भी ख़ूबसूरती दे गया, और इरादतन ऐसा न करना आपकी रचनाओं को उतना ही ग्राह्य करता है, जिसे आम शब्दों में जन- संवाद कहा जाना चाहिए, और इसे मैं आपकी ग़ज़लों के गंभीर होने का बहुत बड़ा मंत्र समझता हूँ. हम सब रचनाएँ रचते हैं, पर अगर उसे पढ़के कोई समझे नहीं, तो उसकी सार्थकता संदेहास्पद हो जाती है, यह दीगर है कि रचनाकार की अपनी अलग सोच होती है, कोई जन- चेतना को लिखता है, कोई जन- संवाद करता है, और कोई आत्म-तुष्टि को अपना सुखन घोषित करता है.


मेरी समझ से, 'तनहा' साहब की यह किताब अन्य ग़ज़ल संग्रह या अन्य किताबों से कई मायनों में इसलिए भी अलग है, क्यूँकि अपनी व्यस्त दिनचर्या से उन्होंने इनकी ग़ज़लों को निचोड़ा है, और घूँट- घूँट अपनी ही प्यास को जीकर, इसमें उड़ेलते हुए लफ़्ज़ों को हरा किया है. आपने जो देखा और जिया है, उसी का बिलकुल सादा चित्रण है यह संग्रह.


दो- तीन मिशरे तो देखिये, किस दिलकश अंदाज़ में टीस ज़ाहिर होती है यहाँ, 


''जबसे जेब में सिक्कों की खनक हैI

तबसे उसके रवैये में कुछ फ़रक़ है II


चेहरा बदल रहा है लिबासों की तरह,

आँखों में न जाने कौन- सी चमक हैI


ये करवटें नहीं, तड़प है मेरे दर्द की,

अंदर ज़माने पहले की कसक है...I''


जिस अदा और और ठसक से आपके लफ्ज़ अपनी धमक पाठक पे दर्ज़ करते हैं, उसकी तारीफ़ तो बनती ही है. और फिर यहाँ हर ग़ज़ल की अपनी ख़ूबसूरती है, जिसे घोषित करना उसकी मिठास को आम करना है, क्यूँकि जो छुपा है, उसी में आकर्षण है, उसी का आस्वादन सम्भाव्य हो, और जो नकारात्मक है, वो नगण्य है. पुस्तक की छपाई- सफ़ाई लाजवाब है, और सिर्फ़ 150/- रु. में इसकी खरीद बहुत ही सुन्दर सौदों में से समझी जानी चाहिए, ख़ासकर उनके लिए जो पढ़ते हैं, और अच्छी किताबों के लिए प्रायः लालायित होते रहते हैं.


और चलते- चलते, जिसे हमारे चाहनेवालों ने समीक्षा की पंक्ति में डाल रखा है, वो दरअसल मेरी अपनी राय है, मतान्तर की संभावना होनी ही चाहिए तभी बातों में बात होती है.'तनहा' साहब की अगली क़िताब की आस में इसी क़िताब में उद्धृत एक शे'र अर्ज़ है,


''जब- जब अँधेरे घने काले हुए हैं,

यहाँ रोशनी फैलाने वाले हुए हैं I'' ***


               समीक्षक - अमिय प्रसून मल्लिक

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किताब- 'सैलाब(ग़ज़ल- संग्रह)'

रचनाकार- डॉ. मोहसिन 'तनहा'

परिदृश्य प्रकाशन, मुंबई

मूल्य- 150/-

शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2021

विश्व रेडियो दिवस : संकल्पना, सेवा और प्रसारण

 विश्व रेडियो दिवस : संकल्पना, सेवा और प्रसारण

संचार साधनों में सबसे महत्वपूर्ण, उपयोगी और मनोरंजक यदि कोई इलेक्ट्रॉनिक साधन रहा है तो वह रेडियो रहा है। न सिर्फ रेडियो ने विश्व को प्रभावित ही किया, बल्कि रेडियो ने जिस तरह से आम आदमी के दिल में जगह बनाई है और आम आदमी के लिए हर प्रकार से जिस तरह से कारगर सिद्ध हुआ है, आज तक किसी अन्य इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने इतनी सशक्त भूमिका नहीं निभाई है। 

विश्व रेडियो दिवस 13 फरवरी को विश्व स्तर पर मनाया जाता है। जैसा कि नाम से ही जाहिर है, यह दिन रेडियो के उपयोग के प्रति लोगों को प्रोत्साहित करने और प्रोत्साहित करने के लिए है। दिन का एक और महत्वपूर्ण हिस्सा अधिक से अधिक लोगों को रेडियो के इतिहास से अवगत कराना है। इस वर्ष, विश्व रेडियो दिवस की थीम को तीन उप-विषयों में विभाजित किया गया है, जैसे कि विकास, नवाचार और कनेक्शन। 2021 में विश्व रेडियो दिवस की दसवीं वर्षगांठ भी है।

यूनेस्को के अनुसार, रेडियो अभी भी दुनिया भर में संचार का सबसे व्यापक रूप से उपभोग किया जाने वाला माध्यम है। यूनेस्को ने यह भी उल्लेख किया है कि रेडियो स्टेशनों को विविध समुदायों की सेवा करनी चाहिए, कार्यक्रमों, दृष्टिकोणों और सामग्री की एक श्रृंखला के माध्यम से।

इस दिन को संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा 2012 में अपनाया गया था और तब से जब से इसे अंतर्राष्ट्रीय दिवस का दर्जा प्राप्त हुआ है। यूनेस्को के सदस्य देशों ने हालांकि 2011 में विश्व रेडियो दिवस की घोषणा की थी। इस विशेष दिन को चिह्नित करने के लिए दुनिया भर में कई तरह के आयोजन किए जाते हैं। इन आयोजनों में रेडियो के महत्व और इतिहास पर सेमिनार और चर्चाएँ शामिल हैं।

भारत में, इस दिवस को वास्तविक परिवर्तन (SMART) के लिए आधुनिक अनुप्रयोगों की तलाश और ऑल इंडिया रेडियो के सहयोग से मनाया जा रहा है। वे सभी संयुक्त रूप से एक कार्यक्रम का आयोजन करेंगे जो ‘न्यू वर्ल्ड, न्यू रेडियो’ थीम पर दो दिनों तक चलेगा। यह आयोजन 13 फरवरी और 14 फरवरी को आयोजित किया जाएगा। वर्तमान कोरोनावायरस महामारी की स्थिति के कारण, कुछ सत्र पूर्व रिकॉर्ड किए जाएंगे और घटना के दिन ऑनलाइन जारी किए जाएंगे। ऐसा करने के पीछे एकमात्र कारण लोगों की सुरक्षा सुनिश्चित करना है।

आयोजन के दौरान होने वाले सत्र वैश्विक स्वास्थ्य संकट, रेडियो के लचीलेपन के दौरान रेडियो के सामने आने वाली चुनौतियों और संचार के माध्यम के रूप में कितने मजबूत हैं, जैसे विषयों पर विचार करेंगे। एक सत्र भी होगा, जिसका शीर्षक होगा “लेसन्स फ्रॉम अक्रॉस द बॉर्डर्स”। इस सत्र में दुनिया भर के रेडियो विशेषज्ञों का एक पैनल शामिल होगा और चर्चा इस बात पर घूमेगी कि कैसे दुनिया 2020 में संकट से जूझ रही है।

सचमुच जनसंचार माध्यम का एक प्रमुख स्रोत रेडियो स्वीकार करना होगा। रेडियो की सक्रिय भूमिका हमारे जीवन में गहरे तक बनी हुई है। रेडियो के आविष्कार से लेकर वर्तमान समय तक रेडियो के बाहरी और आंतरिक रूप परिवर्तन हुए हैं, लेकिन उसकी छवि दिन पर दिन और भी अधिक मजबूत होती चली गई है। जहां डिजिटलाइजेशन के दौर में विजुअल को अधिक मान्यता मिली है, वहीं रेडियो ने भी अपनी जड़ें मजबूत की हैं। आज रेडियो छोटी सी चिप में समावेशित होकर हमारे हैंडसेट में मौजूद है यहां तक कि हमारे पेन, किचन और अन्य स्थानों पर भी रेडियो अपनी उपस्थिति लगातार दर्ज करा रहा है। ऐसा माना जाता रहा था कि रेडियो टेलीविजन के कारण पिछड़ जाएगा या उसका स्वरूप दब जाएगा, कुचल जाएगा; परंतु ऐसा नहीं हुआ। इस आशंका को निराधार साबित कर दिया रेडियो ने तब किया जब डिजिटलाइजेशन के दौर में कदम से कदम मिलाकर विजुअल पोजीशन से आगे निकलता हुआ दिखाई दिया है  आज सैकड़ों चैनल हमारे यहां मौजूद हैं, जो लोगों का मनोरंजन कर रहे हैं और साथ ही साथ ज्ञान की उपलब्धि और प्रसार को भी महत्व दे रहे हैं। वीडियो ने हमारे जीवन की बदलती स्थिति के साथ कदम मिलाते हुए निरंतर एक बेहतरीन साथी की भूमिका का निर्वाह किया है। जहां रेडियो की वस्तुस्थिति और उसके आकार में परिवर्तन आया है वहीं उसके कार्यक्रमों में भी लगातार परिवर्तन आया है। पहले एक अलग प्रकार की थीम पर कार्यक्रम हुआ करते थे, परंतु एफएम रेडियो के आगमन से अब रेडियो चैनलों में स्वतंत्रता का समावेश हो गया है और ऐसे मुद्दों को भी जोड़ा जा रहा है जिसे समाज वर्जित माना जाता था। जो सरकारी रेडियो द्वारा प्रसारित करने पर प्रतिबंधित माने जाते थे, लेकिन एक नुकसान यह हुआ है कि थोड़ा फूहड़ पर भी इसमें समावेशित हो चुका है। रेडियो ने हमें मनोरंजन के साथ सतर्क रहना भी सिखाया है। रेडियो की सेवा में लगातार कोविड महामारी के संबंध में चेतावनी, सावधानी, निर्देश और आदेशों का प्रसारण किया गया है। रेडियो की भूमिका हमारे जीवन की एक महत्वपूर्ण भूमिका के अंग के रूप में स्वीकार किए जाने चाहिए, कारण इसका यह है कि रेडियो विजुअल पोजीशन में ना होकर एक लिसनिंग पोजीशन में है जिसे हर जगह हर समय पर सुना जा सकता है। आज रेडियो वैकल्पिक व्यवस्था के साथ उपलब्ध होने के साथ विभिन्न चैनलों के माध्यम से हमारा मनोरंजन कर रहा है और हमें ज्ञान क्षेत्र की ओर भी आकर्षित कर रहा है। आज विश्व में कई रेडियो चैनल मौजूद हैं, एक क्लिक पर विश्व के सभी रेडियो को सुना जा सकता है जो अलग-अलग भाषाओं क्षेत्रीय भाषाओं को अपनाते हुए अपना काम बखूबी निभा रहे हैं। आधुनिक दौर में रेडियो की भूमिका और भी अधिक कारगर सिद्ध हो रही है क्योंकि रेडियो ने जिस तरह से एक विशेष छाप को तोड़ा है और अपनी नई छाप निर्मित की है उससे पता चलता है कि वह लोगों के जीवन में गहरे तक प्रवेश कर गया है। आज रेडियो कम्युनिटी रेडियो के रूप में भी मौजूद है, प्राइवेट रेडियो के रूप में मौजूद है और सरकारी रेडियो के रूप में भी मौजूद है। रेडियो ने जहां हमारे नैतिक स्तर को मजबूत किया है वही हमें जीवन के कई मार्ग भी सुझाए हैं और कई विशेषज्ञों ने हमारे जीवन के प्रश्नों को भी हल किया है। रेडियो के कार्यक्रमों ने सदा हमें ऐसा वातावरण निर्मित करके दिया है जिसमें हम स्वस्थ तरीके से संतुलित जीवन जी सकते हैं और प्रेरणा स्वरूप बहुत कुछ प्राप्त कर सकते हैं। रेडियो न केवल फिल्मी मनोरंजन की मांग को पूरा करता है साथ ही साथ होगा साहित्य, खेल, राजनीति, विज्ञान, समाचार, स्वास्थ्य, यातायात, मौसम तथा आंतरिक बाहरी दुनिया के समस्त वस्तु स्थितियों से अवगत कराता हुआ हमें अपनापन बांट रहा है।

विश्व में रेडियो की महत्वपूर्ण भूमिका होने के साथ उसकी उपयोगिता और महत्व तो निश्चित है ही, लेकिन भारत में #विविध_भारती क्षेत्र में सबसे अग्रणी है। विविध भारती ने 1948 जबसे अपने केंद्र की स्थापना की तब से लेकर आज तक रेडियो की उत्तरोत्तर प्रगति के बारे में विचार करता रहा है और उसके विकास में अप्रतिम सहयोग प्रदान किया है। वर्तमान समय में जिस तरह से विविध भारती अन्य चैनलो के मुकाबले एक स्तरीय, लाभदायक और जनवादी भावना लेकर चल रहा है वह न सिर्फ सराहनीय है, बल्कि प्रशंसनीय भी कहा जाना चाहिए। जहां आज रेडियो चैनलों की इतनी भीड़ हो गई है और तरह-तरह के नए से नए चैनल निकलने लगे हैं, लेकिन उन्होंने अपनी गुणवत्ता जिस तीव्रता से गँवाई है वहां उनका नकारात्मक और निंदनीय पक्ष कहा जाएगा। लेकिन जैसे-जैसे धीरे-धीरे समय के साथ संभालकर के गंभीरता से विविध भारती ने अपने को एक मुकाम पर लाकर खड़ा किया है वह बहुत बड़ा मकाम है, जो विश्व के रेडियो इतिहास में अवश्य दर्ज होगा ये रेडियो की गरिमा को बनाए रखने में सफल है। वर्तमान समय में विविध भारती सेवा में जो प्रिय, गंभीर, नॉलेजेबल, उद्घोषक विविध भारती और रेडियो को आगे बढ़ा रहे हैं उन्हें लाखों सलाम। कमल शर्मा, यूनुस खान, ममता सिंह, रेणु बंसल, शहनाज़ अख्तरी इत्यादि हैं, जिन्होंने नए से नए कार्यक्रमों को अपने श्रोताओं को लगातार नई-नई विविधताओं के साथ प्रदान किए हैं और उसमें रोचकता के साथ-साथ कई प्रकार की जानकारियों का समावेश करते रहे हैं। यह जानकारियां न सिर्फ श्रोताओं के लिए काम की होती हैं, बल्कि उनके जीवन का केंद्र भी बनती चली जा रही हैं। 

एफएम रेडियो चैनल में दो आर.जे. का बहुत महत्वपूर्ण नाम लिया जा सकता है। एक है जीतू राज और दूसरे हैं नावेद दोनों प्राइवेट रेडियो चैनल से लगातार जनसंपर्क की दुनिया में उतरते चले जा रहे हैं और एक आम आदमी के जीवन के आंतरिक वस्तु स्थितियों को छूते हुए उसकी संवेदनाओं के साथ लोक की संवेदनाओं को साझा कर रहे हैं। इन आर. जे. की जहां भाषा पर पकड़ है, वही विषय पर भी मजबूती दिखाई देती है साथ ही साथ वह श्रोताओं के आंतरिक मन को छूने में भी सफल सिद्ध हुए हैं। उनके कई कार्यक्रम अत्यंत लोकप्रिय हुए हैं और लगातार लोग उन्हें रेडियो पर सुनना पसंद करते रहे हैं। रेडियो को और भी अधिक उन्नत सफल तथा मनोरंजन पूर्ण साधन बनाने में रेडियो जॉकी अथवा आर.जे. का बहुत महत्वपूर्ण स्थान है यदि वह अपनी बोलने की कला कौशल से लोगों को प्रभावित करता है साथ ही साथ उनकी संवेदना ओं को भी छूता है और ज्ञान के प्रसार में भी सहयोग देता है तो एक सफल रेडियो जॉकी अर्थात आर. जे. बन सकता है। रेडियो ने जहां कलात्मकता को बढ़ावा दिया है, वहीं रोजगार की वस्तु स्थिति के लिए भी कई द्वार खोल दिए हैं। चाहे वह विज्ञापन की अवस्था हो या आर.जे. बनने की होड़ हो। रेडियो ने एक प्रतियोगिता का वातावरण भी निर्मित किया है और यह प्रतियोगिता स्वस्थ तथा रोजगार परक प्रतियोगिता के रूप में देखी जा सकती है।

'विश्व रेडियो दिवस' पर विश्व के सभी श्रोताओं को विश्व रेडियो दिवस की हार्दिक-हार्दिक शुभकामनाएं!!!


डॉ. मोहसिन खान

हिंदी विभागाध्यक्ष एवं शोध निर्देशक

जे. एस. एम. कॉलेज, अलीबाग-रायगड 

महारष्ट्र